रावण
रावण ***** आज फिर याद करके उसकी गलतियों को पुतला जलाएँगे हम। पर अपने अंदर... फिर भी सम्भाल कर रखेंगे। जिससे हम डरते है.... उसका पुतला जला तसल्ली कर लेते हैं। बरसों से..युगों से.. बचा के रखा तो है हमने उसे। और अब तो कलयुग है प्रभु! वह तो त्रेता में भी बलशाली था। वह सचिदानंद न सही, सर्वव्यापी तो है ही.. आज भी.. क्या नहीं है? हर बार... हर साल जलाने पर भी मरता नहीं है वो। सुरसा की तरह बढ़ता ही जा रहा है.. पर हनुमान भी तो आते नहीं..। अनेक कुबेरों पर एक छत्र अधिकार उसका ही तो है। स्वर्णजटित जल, पहाड़, प्रकृति को खोद-उलीच कर दोहन कर रहा है। वह फिर-फिर जी उठता है.. हर बार.. रक्तबीज के जैसे। पर महाकाली भी तो आती नहीं... बढ़ता जाता है... जलकुम्भी की तरह ... जल में। बबूल की तरह ...स्थल में धूल और धुँए की तरह... आकाश में। और.... पाप की तरह ...मन में। बल्कि.... वह कभी मरा ही नहीं । क्योंकि.... नाभि का अमृत उसका हटा नहीं है। पर राम ... आते नहीं। हाँ..जिस राम का रूप बनाने की हिम्मत उसने कभी की न थी। उस राम के भेष में बहुरूपिये चारो तरफ हैं। वह तो एक ही था ...