वो विंडोसीट
वो विंडोसीट ********* सोचकर हँसता हूँ मैं.. कई बार... चिन्ता भी तो करता हूँ, कुछ ज्यादा पुरानी नहीं... बस कल की ही तो है ये बात... हम लड़ते थे, बैठने को, बस और रेल की खिड़कियों के पास। और अपनी बारी आने पर जैसे पा जाते थे त्रिभुवन का ऐश्वर्य। जब देखते थे- बाहर की जमीन घूमती थी, वृत्ताकार.... जैसे चल रहे हों हम वृत्त की परिधि पर। पेड़, मकान... खेत-खलिहान... और खम्भे बिजलियों के छूटते जाते थे, पीछे...बहुत पीछे। आँखों की पुतलियाँ घूमती थी बड़ी तेजी से कई बार हम गिनते थे इनको... इन पेड़ों और खंभों को.. ....और बताते बड़े गर्व से उन सबको, जिनको उस विंडो सीट से हटा राजसिंहासन पाते थे हम.....। अब ....हाँ अब, हमारे बच्चे भी तो ढूँढते हैं.. एसी की उन खिड़कियों पर मोबाइल के चार्जर पॉइंट्स। अब सारी प्रकृति पेड़ और खेत.. खेल, आसमान और कविताएँ और पूरा का पूरा जीवन लाइक और नाइस उनके हाथ ही हैं पर आभासी....वर्चुअल.. खिड़की के बाहर उनके लिए नया, अलबेला कुछ भी नहीं है, कुछ भी तो नहीं।