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वो विंडोसीट

वो विंडोसीट ********* सोचकर हँसता हूँ मैं.. कई बार... चिन्ता भी तो करता हूँ, कुछ ज्यादा पुरानी नहीं... बस कल की ही तो है ये बात... हम लड़ते थे, बैठने को, बस और रेल की खिड़कियों के पास। और अपनी बारी आने पर जैसे पा जाते थे त्रिभुवन का ऐश्वर्य। जब देखते थे- बाहर की जमीन घूमती थी, वृत्ताकार.... जैसे चल रहे हों हम वृत्त की परिधि पर। पेड़, मकान... खेत-खलिहान... और खम्भे बिजलियों के छूटते जाते थे, पीछे...बहुत पीछे। आँखों की पुतलियाँ घूमती थी बड़ी तेजी से कई बार हम गिनते थे इनको... इन पेड़ों और खंभों को.. ....और बताते बड़े गर्व से उन सबको, जिनको उस विंडो सीट से हटा राजसिंहासन पाते थे हम.....। अब ....हाँ अब, हमारे बच्चे भी तो ढूँढते हैं.. एसी की उन खिड़कियों पर मोबाइल के चार्जर पॉइंट्स। अब सारी प्रकृति पेड़ और खेत.. खेल, आसमान और कविताएँ और पूरा का पूरा जीवन लाइक और नाइस उनके हाथ ही हैं पर आभासी....वर्चुअल.. खिड़की के बाहर उनके लिए नया, अलबेला कुछ भी नहीं है, कुछ भी तो नहीं।

सिताबी: मेरी नई कहानी, बिल्कुल सच्ची

सिताबी: मेरी नई कहानी, बिल्कुल सच्ची **************************** यूँ तो कहानियाँ सच्ची नहीं होती, वह सिर्फ होती है कल्पना.. पर ये बिल्कुल सच्ची कहानी है... निन्यानबे प्रतिशत तक सच्ची... सिताबी... हाँ यही नाम बताया था उसने.. अवस्था यही कोई पचहत्तर साल रही होगी। बड़े ही अलग से इस नाम ने ही मुझे वहाँ रोक दिया था, मेरी बड़ी पुरानी पारिवारिक कहानी में भी एक किरदार का यह नाम मैंने लगभग चालीस वर्षों बाद फिर से सुना था। खैर... एक बड़े से पेड़ के नीचे पर बैठी थी वो.. यह बात है माउंट आबू की। इधर साल दो हजार सत्रह खत्म होने को था और हम दो मित्र परिवार सहित क्रिसमस वीक में अपनी छुट्टियाँ खत्म कर रहे थे। बहुत ही सर्द दिन था वो.. माउंट आबू... राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन.. इन छुट्टियों में गुजरातियों की भारी भीड़ से खचाखच भरा था। अपनी टवेरा से साइट सीन घूमते-घूमते हम दोपहर में दिलवाड़ा के जैन मंदिर पहुंच चुके थे। सभी मंदिर के अंदर नक्काशी देखने में व्यस्त थे और मैं... मुझे तो अपनी नई कहानी मिल चुकी थी। दिलवाड़ा के जैन मंदिर के बाहर टैक्सी स्टैंड के पास एक बड़ा सा पेड़.. घना... प