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छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक द्वितीय खण्ड हिन्दी भावार्थ सहित)

                         द्वितीय खण्ड अथ येऽस्य दक्षिणा रश्मयस्ता एवास्य दक्षिणा मधुनाड्यो यजूँष्येव मधुकृतो यजुर्वेद एव पुष्पं ता अमृत आपः ॥ ३. २. १ ॥ इस प्रकार आदित्य की दक्षिण दिशा की रश्मियाँ ही दक्षिण की मधु नाड़ियाँ हैं । यजुर्वेद के मन्त्र ही मधु उत्पन्न करने वाली मधुमक्खियाँ, स्वयं यजुर्वेद ही पल्लवित पुष्प और यही अमृत है । तानि वा एतानि यजूँष्येतं यजुर्वेदमभ्यतपँस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यँरसोजायत ॥ ३. २. २ ॥ यजुर्वेद के इन्ही मन्त्रों से तप करके यश, तेज और रस की उत्पत्ति हुई। तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य शुक्लँ रूपम् ॥ ३. २. ३ ॥ यह रस ही आदित्य के चारों ओर उपस्थित है जो सूर्य का शुक्ल रूप है।       इति द्वितीय खण्ड

छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक प्रथम खण्ड (हिंदी भावार्थ सहित)

छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक (हिंदी भावार्थ सहित)               प्रथम खण्ड ॐ असौ वा आदित्यो देवमधु तस्य द्यौरेव तिरश्चीनवँशोऽन्तरिक्षमपूपो मरीचयः पुत्राः ॥ ३. १. १ ॥ भगवान के आदित्य नाम की भक्ति करनी चाहिए जो देवों के मधु के समान है। इसका द्यौ लोक और आदित्य लोक ही तिर्यक-वंश है जहाँ इस मधु का छत्ता लगता है । अंतरिक्ष रूपी मधुकोश में ही उसकी किरणे मधु के संचय का कार्य करती हैं। तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः । ऋच एव मधुकृत ऋग्वेद एव पुष्पं ता अमृता आपस्ता वा एता ऋचः ॥ ३. १. २ ॥ उस आदित्य की प्राची दिशा की किरणे पूर्व दिशा की मधु नाड़ियाँ हैं। ऋचाएँ मधु उत्पन्न करने वाली मधु मक्खियाँ और ऋग्वेद सुगंधित पल्लव युक्त पुष्प हैं। इसके स्तोत्र ही अमृत रस हैं। एतमृग्वेदमभ्यतपँस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यँरसोऽजायत ॥ ३. १. ३ ॥ इस ऋग्वेद रुपी पुष्प को तप कर उसके स्तोत्रों का गान करके ही हमें यश, तेज, ऐश्वर्य, इन्द्रियों रुपी शक्ति और अन्न प्राप्त हुआ। तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य रोहितँरूपम् ॥ ३. १