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सामवेदीय उपाकर्म में प्रातः संध्या पाठ

सामवेदीय उपाकर्म     प्रातःसन्ध्या                              तत्र सव्यहस्ते कुशत्रयं दक्षिणहस्ते कुशद्वयं धृत्वा आचम्य- “मम् उपात्तदुरितक्षयार्थं ब्रह्मवर्चसतेजकामार्थं प्रातः सन्ध्योपासनमहं करिष्ये” इति संकल्प्य, दक्षिणहस्तेन जलामादय, प्रदक्षिणं परितः सिंञ्चनात्मरक्षां कुर्यात्।  ततः ऋष्यादीन् संस्मृत्य मार्जनं कुर्यात् । ॐकारस्यब्रह्मा ऋषिः दैवी गायत्री छन्दः अग्निर्देवता सर्व कर्मारम्भे विनियोगः। व्यहृतीनां विश्वामित्र-जमदग्नि-भरद्वाजा गायत्र्युषि्णगनुष्टुवग्निवायुसूर्याः, तत्सवितुर्विश्वामित्रो गायत्री सविता, आपोहिष्ठेति तिसृणां सिन्धुद्वीपो गायत्र्यायः मार्जने विनियोगः। ततो दक्षिणहस्ते कुशत्रयमादाय, जलाशयस्थं स्थले पात्रस्थं वामहस्तस्थं वा कुशाग्रैर्ज्जलमादाय, मार्जनं कुर्यात्।                           ॐभूर्भुवःस्वःतत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।                          ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। ॐ ता न ऊर्जे दधातन। ॐ महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः। ॐ तस्य भाजयते हनः। ॐ उशतीरिव मातरः। ॐ तस्मा अरङ्गमामवो। ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ। ॐ आपो जनयथ

छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक, अष्टम एवँ नवम् खण्ड के हिंदी भावार्थ सहित )

              ॥ अष्टम खण्ड ॥ अथ यत्तृतीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३. ८. १ ॥                   सूर्य के कृष्ण स्वरूपी तीसरे अमृत को बारह आदित्य देवता  (महाभारत के अनुसार धाता, मित्र, अयमा, शक्र,अरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा, और वामन भगवान यह बारह आदित्य देव हैं ) अपने वरुण मुख से पीकर जीवन धारण करते है। निश्चित ही वे सभी आदित्य देव न तो भोजन को खाते हैं और न जल पीते हैं पर इस परम अमृत के साक्षात्कार से ही तृप्त हो जाते है और समस्त ऐश्वर्य और समृद्धि प्राप्त करते हैं। त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३. ८. २ ॥                   वे बारह आदित्य इस कृष्ण अमृत के अनुभव मात्र से ही उदासीनता और उत्साह का अनुभव कर सकते हैं । स य एतदेवममृतं वेदादित्यानामेवैको भूत्वा वरुणेनैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३. ८. ३ ॥                      इसी प्रकार परब्रह्म नारायण का जो उपासक एकाग्रचित्त होकर अपने वरुण मुख से सूर्य के

श्री महागणेश ढुण्डीराज स्तोत्रम्

श्री महागणेश ढुण्डीराज स्तोत्रम् ढुण्डीराजः प्रियः पुत्रो, भवान्यः शंकरस्य च । तस्य पूजन मात्रेण, त्रयोऽपि वरदाः सदा ॥ स्त्रवन्मद घटा सक्त संगुञ्जलि संकुलः । लसात्सिन्दूर पूरोऽसौ, जयति श्रीगणाधिपः ॥ गृहमेध्यत्र विश्वेशो, भवानी तत्कुटुम्बिनी । सर्वेभ्यः काशीसंस्थेभ्यो,मोक्ष भिक्षां प्रयच्छति ॥ शान्ति कन्थाल सत्कण्ठो, मनःस्थाली मिलत्करः । त्रिपुरारी पुराद्वारि, कदस्यां मोक्ष भिक्षुकः ॥    ॥   श्रीमहागणेश ढुण्डीराज स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥        श्रीमहागणेश ढुण्डीराज स्तोत्र का भावानुवाद जिसपर काशी की स्थानीय भाषा में स्तुति और भजन किया जाता है । स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में इसका वर्णन आता है । (पारवती सिव के अति पियारे, ढुण्डीराज जुवराज दुलारे । तिन्हके पूजन से सन्तोषै , तीनहु देत वरहि नित पोषै । स्त्रवत दान जल लोभ परि, गूँजत भँवर समूह । सेंधुर पूरित तन जयति, गज नायक गजमूँह ।   इह गृहस्थ विस्वेस हैं,धरनी मातु भवानी । कासीवासि सब लोग हित, भुक्ति भीख की दानि । सांतिरूप कथरी को ओढौं, अथवा कंठ लपेटौ । मन सरूप बटलोही भीतर, कबहूँ न हाथ समेटौ ।