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अपेक्षाओं का शून्य

              अपेक्षाओं का शून्य परमात्मा ने आदमी को बनाया और कहा.... अद्वितीय हो तुम..... तुमसे बेहतर कोई भी नहीं... और यही बात उसने सभी को कह दी.. तबसे आदमी यही ख्याल लिए जीता है, कि उससे अच्छा कोई भी नहीं। वह आत्ममुग्ध है और ... स्वयं ही कहता फिरता है.. ईश्वर की सर्वोत्तम कृति वही है। इसी दंभ में जीता है...सदा.. और पाता है अनन्य दुःख क्योंकि अपेक्षाएँ बढ़ा लेता है, जो पूरी कभी नहीं होती। अनंत हैं उसकी अपेक्षाएँ... और जीवन बहुत छोटा है.. जितना ज्यादा चाहोगे... दुःख बढ़ेगा.. एक बार अपनी अपेक्षाओं को.. शून्य करके देखो.. जो मिल जाय, उसके प्रति धन्यवाद का भाव हो... कृतज्ञता का भाव.. वही सच्चे आस्तिक की प्रतिक्रिया होगी। जो मिला है..बहुत है... मगर देखो तो.. एक आदमी मरने जा रहा था.. जिस नदी में वह कूदना चाहता था... कूद कर जान दे देना.. किनारे उसी नदी के एक फकीर बैठा था... रोका उसने... क्या कर रहे हो... क्यों मरना चाहते हो? अब मत रोको..बस अब बहुत हुआ.. जीवन बेकार है... जो चाहा नहीं मिला... जो नहीं चाहा वही मिला... तो फिर.. मैं भी क्यों स्वीकार करूँ ये जीवन