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श्रीकृष्ण प्रात:स्मरणम्

ॐ नमो भगवते   वासुदेवाय ॥ श्रीकृष्ण गोविंद हरे   मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव   । प्रद्युम्न दामोदर विश्वनाथ   मुकुंद   विष्णो: भगवन् नमस्ते ॥ करारविन्देन पदारविन्दम्    मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं । बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥ कृष्णाय वासुदेवाय हरयेपरमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: ॥ नमोस्त्वनन्ताय सहस्त्रमूर्तये सहस्त्रपादाक्षिशिरोरूबाहवे। सहस्त्रनाम्ने पुरूषाय शाश्वते सहस्त्रकोटी युग धारिणे नम:॥ भवे भवे यथा भक्ति: पादयोस्तव जायते । तथा कुरूष्व देवेश नाथस्त्वं नो यत: प्रभो ॥ नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपाप प्रणाशनम् ।   प्रणामो दु:खशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥

छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक सप्तदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित

छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक सप्तदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित  स यदशिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य दीक्षाः ॥ ३. १७. १ ॥ यज्ञ रुपी पुरुष की दीक्षाएँ भी यही हैं कि वह खाने(भोजन) और पीने की इच्छा रखता है और रमण करने अर्थात रति कर्म की इच्छा नहीं रखता है । अथ यदश्नाति यत्पिबति यद्रमते तदुपसदैरेति ॥ ३. १७. २ ॥ जो खाने, पीने के साथ रमण भी करता है वह उपसद अर्थात कार्यकर्त्ता या ऋत्विक के समान है ।  अथ यद्धसति यज्जक्षति यन्मैथुनं चरति स्तुतशस्त्रैरेव तदेति ॥ ३. १७. ३ ॥ और जो पुरुष हँसता है, खाता है (सात्विक भक्षण) और रमण करता है (धर्मपत्नी के साथ ऋतु काल में रत) वह सभी प्रकार के स्तोत्र और शस्त्र( सामगान में गाए जाने वाली ऋचाएँ स्तुत व नहीं गाए जाने वाली ऋचाएँ शस्त्र कहलाती हैं)  को प्राप्त करता है। (गीता के सत्रहवें अध्याय में परब्रह्म श्रीकृष्ण ने बताया है कि आयु, ज्ञान, आरोग्य और प्रीति बढ़ाने वाले रसदार, चिकने, स्थाई और चित्त को भाने वाले आहार सात्विक पुरुषों को प्रिय होते है ।  कड़वे, खट्टे, नमकीन, गर्म, तीखे, रूखे और जलन पैदा करने वाले जो रोग और दुःख उत्पन्न करत