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वे बूढ़े

वे बूढ़े.. तब से करते हैं...लड़ाई, अपने आप से..जब वे पैदा करते हैं अपने बच्चे.. करते हैं जीवन संघर्ष.. काम...कड़ी मेहनत, झेलते हैं..सहते है..तमाम क्लेश, क्लांति.. कभी करते क्रोध, तो कभी समझाते शांति.. पर... आदर्शों के साथ जीना.. और देना अच्छे संस्कार... रहता है सदा उनका लक्ष्य। और फिर बीतता है समय... जब वे दोनों, अपने दोनों की बगिया को सींचते हैं, लगाते हैं अपना समय.. अपना सारा मन..सारा धन अपने बच्चों पर.. उनका ये निवेश... उनका कर्तव्य ही तो है.. जी तोड़ मेहनत से- अपने सभी तंतुओं को बटोरकर एक-एक पाई जोड़कर वे खड़ा करते हैं, उनके लिए आधार.. जो जीवन की आँधी में हिले नहीं, देते है घनी छाया- बचाए जो धूप के थपेड़ों से से.. पर ये निवेश भी डूब जाता है, सट्टा बाजार की तरह.. जब..उनके दोनों.. इन दोनों को जमा कर देते हैं किसी वृद्ध घर में और सिखाते हैं औकात, बताते हैं गलतियाँ उनके जीवन की। और तब... लगता है उन्हें.. जैसे यह पिछले जनम का कुछ चक्कर तो जरूर है.. पर.. यही तो शाश्वत सत्य है, औलाद तो हमेशा से ऐसी ही रही है भाई, जिसने मरने के बाद भी नहीं छोड़ा.. उनकी मि

श्रीमद्भागवत प्रथम स्कन्ध तीसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत प्रथम स्कन्ध तीसरा अध्याय यस्यावयवसंस्थानैः कल्पितः लोकविस्तरः। तद्वै भगवतो रूपं विशुुद्धं सत्वमूर्जितम् ।।1/3/3 भगवान के उस विराट रूप के अंग प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की रचना की गई है। वह प्रभु का विशुद्ध सत्वमय श्रेष्ठ रूप है। पश्यंत्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा सहस्त्रपादोरुभुजाननाद्भुतं।। सहस्त्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं सहस्त्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत। 1/3/4 योगीजन दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप सहस्त्र पैरों, चक्षुओं और सहस्त्र नासिकाओं वाला है।हजारों मुकुट, वस्त्र और कुंडल आदि आभूषणों से वह उल्लासित रहता है। एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम्।यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यंङ्गरादयः।।1/3/5 भगवान का यही पुरुषरूप जिसे  नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है।इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। और इनके ही सूक्ष्म अंश से पशुपक्षियों और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है। अवतार वर्णन *********** स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमास्थितः। चचार दुश्वरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम्।।1/3/6 प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन

श्रीमद्भागवत प्रथम स्कन्ध द्वितीय अध्याय से चुने हुए कुछ मोती

यो लीलालास्यसंलग्नो गतोsलोलोsपि लोलताम्। तं लीलावपुषं बालं वन्दे लीलार्थ सिद्धये।। स्वपुरुषमपि वीक्ष्य पाशहस्तं वदति यम किल तस्य कर्णमूले। परिहर भगवत्कथासु मत्तान प्रभुरहमन्यनृणा न वैष्णवानाम्।। अपने दूत को पाश हाथ मे लिए देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं- 'देखो! जो भगवान की कथावार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवों को नहीं '।। स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरघोक्षसे। अहैतुक्यप्रतिहता ययाssत्मा संप्रसीदति।1/2/6 मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है जिससे भगवान श्री हरि में भक्ति हो।भक्ति भी ऐसी जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य निरन्तर बनी रहे। ऐसी भक्ति से हृदयः आनंदस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि कर कृतकृत्य हो जाता है। धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः। नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम्।।1/2/8 धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला और कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है। वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः। जन्यत्याषु वैराग्यं

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् 3/73

अस्ति स्वस्तरुणी कराग्र विगलत यस्तु प्रस्तुत वेणुनाद लहरी निर्वाण सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेsपि धन्या नियसति हृदि येषा श्रीहरेर्भक्तिरेका हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय प्रविशति हृदि तेषा भक्तिसूत्रोपनद्ध। जिनके हृदय में एकमात्र श्रीहरि की भक्ति निवास करती है, वे त्रिलोक में अत्यंत निर्धन होने पर भी परम धन्य हैं, क्योकि इस भक्ति की डोरी में बँधकर तो साक्षात भगवान भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदय में आकर बस जाते हैं। सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्याः निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका । हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः ।। संसारसागरे मग्नः दीनं मा करुणानिधे। कर्ममोह गृहीतांङ्ग मामुद्दर भवार्णवात। हे करुणानिधान प्रभो! मैं संसार सागर में डूबा हुआ दीन व्यक्ति हूँ। कर्मों के मोह रूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है।अब आप ही इस संसार सागर से मेरा उद्धार कर सकते हैं। श्रीमद्भागवताख्याsय प्रत्यक्ष कृष्ण एव हि। स्वीकृतोsसि मया नाथ मुक्त्यर्थे भवसागरे। श्रीमद्भागवत रूप में आप साक्षात श्रीकृष्ण ही विराजमान हैं, हे नाथ! मैंने भवसागर से छुटकारा पाने