श्रीरामायण कथामृत २
गतांक से आगे..
अयोध्या...
यह सुंदर नगरी प्रजाजनों में अवधपुरी नाम से प्राणों से भी अधिक प्रिय और विख्यात थी।
आज सूर्यनारायण अपने प्रचण्ड मार्त्तण्ड रूप में मस्तक के ऊपर दैदीप्यमान हो रहे थे, मध्याह्नकाल बीता जा रहा था। राज्यसभा समाप्त हो चुकी थी तथा राजकर्मी अपने घरों को लौटने लगे थे।
राजवस्त्रों से सजे धजे एक सन्तरी ने राजभवन के बाहर गोलम्बर से टँगे उस काँसे के विशाल घण्टे पर काष्ठ के बने मारतौल से आघात किया। टन्नऽऽ ....का तीव्र निनाद उस विशाल नगरी की सीमा तक गूँज उठा। यह राजसभा की आज की कार्यवाही के समाप्त होने का संकेत था।
प्रतिदिन उस निनाद को सुनकर कौशल्या अपने स्वामी की प्रतीक्षा करने लगती थीं, किंतु आज राजकार्य से निवृत्त होकर भी राजा दशरथ अपने कक्ष में नहीं लौटे, बहुत समय बीत चुका था।
महारानी कौशल्या को चिन्ता होने लगी, वह अपने कक्ष के द्वार पर आकर खड़ी हो गईं। मध्याह्न भोजन महाराज के लिए कौशल्या स्वयं तैयार करती थीं। अब भोजन का समय था और वह अभी लौटे न थे।
महारानी किसी को भेज कर महाराज की सुध-बुध लेने का विचार ही कर रहीं थीं कि महाराज उन्हें अपने कक्ष की ओर ही आते दिखाई दे गए।
महारानी कौशल्या के अधरों पर मद्धम मुस्कान आ गई।
महाराज को साथ लेकर वह महल के भीतर आ गईं और कहा-
"आइये! आप भोजन कर लीजिये स्वामी! "
महाराज दशरथ स्वीकृति में माथे को हिलाकर और हाथ मुँह स्वच्छ करके सुंदर आसन रखे पीढ़े पर बैठ गए।
कौशल्या ने भाँति-भाँति के पकवानों को स्वर्ण थाल में परोसा, बड़ी श्रद्धा के साथ भगवान को नैवैद्य लगाया और दशरथ जी के समक्ष परोस कर पाँख झलने लगीं।
भोजन कर लेने के बाद दशरथ जी ने कौशल्या के मुख पर अपने नेत्र स्थिर किये। उनके मुख पर नैराश्य के भाव देखकर महारानी ने पूछा-
" ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या नरेश के हृदय में कुछ ऐसा चल रहा है जो उन्हें उद्विग्न किये हुए है, क्या मेरे मन में आए भाव उचित हैं स्वामी?"
कौशल्या की मुखमुद्रा पर बड़ा से प्रश्नचिन्ह उभर आया था।
"न... न, ऐसा भी कुछ नहीं महारानी। किंतु अभी जब मैं अपनी मुखशुद्धि कर रहा था तो दर्पण में मैंने देखा...मेरे केशगुच्छ अब श्वेत होने लगे हैं।"
राजा ने किन्चित हास्य का अभिनय करने का प्रयत्न किया।
"मुझे नहीं लगता महाराज कि मात्र श्वेत केश महान इक्ष्वाकुवंशीय सम्राट को दुःख पहुँचा सकते हैं।"
महारानी ने भी हँसी की।
"वय के इस चौथपन में पुत्र की आकांक्षा हृदय को कई बार बड़ा आकुल करती है कौशल्ये..!"
दशरथ का मुख गहन गाम्भीर्य धारण कर चुका था।
महारानी का मुख भी कुम्हला गया।
कौशल्या को उदास देखकर दशरथ जी ने धीमे से महारानी का कन्धा सहलाया और कहा-- "उदास न होईये महारानी, मैंने इसका भी उपाय सोच लिया है। मैं पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। मैंने इसी कार्य पर विचार हेतु मंत्रिवर सुमन्त्र को बुलाया है, वह आते ही होंगे।"
जैसा दशरथ जी ने कहा था, शीघ्र ही मंत्री सुमन्त्र वहाँ पधारे।
धर्मात्मा राजा अपने प्रिय मंत्री सुमन्त्र के साथ मन्त्रणा करने लगे।
"मंत्री सुमन्त्र! आप तो मेरे हृदय की कामना को भली प्रकार से समझते हैं। मेरे मन में ऐसा विचार हुआ है कि मैं पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँ।
आप क्या कहते हैं?"
"आपका विचार अति उत्तम है राजन! 'शुभस्य शीघ्रम्...' आप आदेश करें।"
"... तो ऐसा करें मंत्री सुमन्त्र जी, आप मेरे समस्त गुरुजनों एवं पुरोहितों को शीघ्र ही यहाँ आमंत्रित करें। उनके सुझावों, निर्देशों और सहमति की भी आवश्यकता होगी।"
सुमंत्र जी ने बिना कोई विलंब किये, सभी समस्त वेद-विद्या के पारंगत मुनियों को वहाँ बुला लिया। ऋषिवर सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि और कुल पुरोहित वसिष्ठ जी सहित बहुत सारे श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ आए।
राजा दशरथ ने उन सबका आदर सत्कार किया, उनके चरणों की पूजा की और धर्म तथा अर्थ से युक्त मधुर वचनों में कहा-
" हे महर्षियों ! मैं सदा पुत्र की प्राप्ति के लिए विलाप करता रहता हूँ। इस राज्य, सम्पत्ति और ऐश्वर्य आदि से मुझे कोई सुख नहीं मिलता। मैंने विचार किया है कि मैं पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध द्वारा भगवान का यजन करूँ। आप सब महान ज्ञानी हैं, धर्म को धारण करते हैं, कृपया मुझे बताइये, आप सबका क्या कहना है??
" साधु...साधु धर्मात्मा राजन! आपका विचार और उद्देश्य अत्यन्त ही शुभ है।"
राजा के ऐसा कहने पर कुलगुरु वसिष्ठ जी और साथ आजभी ऋषियों ने उनके वचनों की प्रशंसा की और कहा-
" महाराज! आप यज्ञ सामग्री का संग्रह करावें। शीघ्र ही शुभ मुहूर्त आने होने को है। सरयू नदी के उत्तम तट पर यज्ञ भूमि का निर्माण किया जाएगा। आप अवश्य ही भगवान को प्रसन्न करके यज्ञ द्वारा अपनी इच्छा के अनुरूप पुत्र प्राप्त करेंगे। पुत्र के लिए आपके हृदय में ऐसी धार्मिक बुद्धि का उदय हुआ है, यह अत्यंत उचित है।"
राजा दशरथ उनके कथन से बड़े संतुष्ट हुए। उनके नेत्रों में चमक आ गई।
शुभ कार्य मे विलंब क्या था? मंत्री सुमन्त्र ने स्वयं इस कार्य को अपने हाथ में ले लिया और अश्वमेध यज्ञ की तैयारी करने लगे।
"महाराज! आपकी आज्ञा हो तो इस सम्बन्ध में मैं कुछ बताना चाहता हूँ।"
"कहिए मंत्रिवर! आप मेरे सहोदर की ही भाँति मुझे अत्यन्त प्रिय हैं, निःसंकोच होकर कहें। "
"महाराज! मैंने सुना है कि पूर्व काल में सनत्कुमार ऋषिगणों ने एक कथा सुनाई थी। वह आपके पुत्र प्राप्ति से संबंध रखने वाली है और साक्षात नारायण के मनुष्य अवतार की भी। भगवान ने अनेक कल्पों में धरती पर अवतार लिया है तथा सुन्दर लीलाएँ की हैं। भिन्न-भिन्न स्थानों और युगों में परब्रह्म भगवान के रामावतार की कथाएँ महादेव ने माता पार्वती को, काकभुशंडी ने गरुड़ को और महामुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को सुनाई हैं। महाज्ञानी सनत्कुमार ने कहा था- एक कल्प में महर्षि कश्यप और अदिति को भगवान ने उनके पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया था। कालान्तर में पुनः स्वायम्भु मनु और शतरूपा ने भगवान की बड़ी कठोर तपस्या की थी। भगवान प्रसन्न हुए और प्रकट हो गए।
मनु और शतरूपा ने उनके चरण पकड़ लिए।
भगवान ने कहा- "वर माँगो।"
मनु ने कहा-
"आपको देख लिया...भगवान के दर्शन हो गए, अब कोई कामना शेष नहीं।"
"माँगो पुत्र, जो चाहो माँग लो।"
"क्या माँगू भगवन! मन मे लालसा है किंतु संशय भी। किसी दरिद्र को कल्पवृक्ष मिल जाय तो अधिक माँगने में संकोच करता ही है, वैसा ही कुछ मेरे मन में है।
सो तुम जानहु अंतरजामी।
पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।
"स्वामी! आप तो अन्तर्यामी हैं, सब जानते हैं, हमदोनों पति पत्नी की मनःकामना पूरी कर दें।"
" संकोच छोड़ो राजा! माँगो, कुछ भी ऐसा नहीं जो मैं तुम्हें दे न सकूँ।
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही।
मोरे नहिं अदेय कछु तोही।"
"आपके समान पुत्र चाहते हैं हम दोनों, हे प्रभु! आप से क्या छुपाऊँ?"
मनु ने नेत्रों को नीचा कर लिया, हाथ जोड़ लिए। शतरूपा निर्निमेष भगवान को निहार रही थी, उसके नेत्रों से अश्रु निरन्तर बहे जाते थे।
एक क्षण सोचा भगवान ने, फिर हँसकर कहा-
" अब अपने समान दूसरा कहाँ से लाऊँ मैं, सो मैं स्वयं ही तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा। त्रेतायुग में तुम अवध के राजा बनोगे और मैं मनुष्य रूप में तुम्हारा पुत्र। अब प्रसन्न हो और स्वर्ग का सुख भोगो।"
भगवान ने स्वयं उनके घर पुत्र रूप में जन्म होने का वरदान दिया था, जो सत्य होना ही था।
"बहुत काल बीत जाने पर त्रेतायुग में आप अपने पुण्यकर्मों के कारण इक्ष्वाकुवंश में महाराज दशरथ नाम से उत्पन्न होंगे और राज्य करेंगे।" कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
इक्ष्वाकूणां कुलौ ज्ञातो भविष्यति सुधार्मिकः।
नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान् सत्यप्रतिश्रवः।
देवप्रवर भगवान सनत्कुमार ने ऋषियों को बताया था कि वरदानस्वरूप धर्मात्मा राजा दशरथ के घर भगवान का श्रीराम के रूप में जन्म होगा। इसके लिए राजा दशरथ अपने मित्र अंगदेश के राजा रोमपाद के निकट जाएँगे तथा उनकी पुत्री शान्ता के पति महर्षि ऋष्यश्रृंङ्ग से यज्ञ कराने का आग्रह करेंगे। ब्रह्मर्षि ऋष्यश्रृंङ्ग यज्ञकर्म सम्पन्न कराएँगे और उसके फलस्वरूप राजा के घर चार पुत्र उत्पन्न होंगे।
भगवान राम स्वयं अत्यन्त गूढ़ और अतिविशेष कार्य हेतु राजा दशरथ के घर जन्म लेंगे जो यशस्वी, विख्यात, अनन्त पराक्रमी और वंश की मर्यादा बढ़ाने वाले होंगे। "
दशरथ जी ने अपने मंत्री सुमन्त्र की बात सुनी तो हर्ष मिश्रित आश्चर्य से उनका मुख कान्तिवान हो उठा। उनका रोम रोम पुलकित हो गया। प्रसन्नता से अश्रु छलकने लगे और उन्होंने स्नेह से सुमन्त्र का हाथ थाम लिया।
" सुमन्त्र! आप मेरे सच्चे हितैषी हैं, शीघ्र ही वसिष्ठ जी को बुलाइये। अब देर करने की क्या आवश्यकता? उनसे आज्ञा लेकर मैं अपने मित्र रोमपाद के समीप जाऊँगा, उनसे आग्रह करूँगा कि वह अपने जामाता ब्रह्मर्षि ऋष्यश्रृंङ्ग जी को मेरे साथ भेज दें। "
चतुर्दिक मंगल शगुन होने लगे।
पुरोहित वसिष्ठ जी ने दशरथ का मनोरथ सुना तो प्रसन्न होकर ब्रह्मर्षि ऋष्यश्रृंङ्ग को आदरपूर्वक अयोध्या ले आने के लिए आज्ञा दे दी।
राजा दशरथ अपनी रानियों और मंत्रियों को साथ लेकर अंगदेश गए और मित्र राजा रोमपाद से अनुनय करके तथा विप्रवर ऋष्यश्रृंङ्ग की सहमति लेकर उन्हें सपत्नीक बड़े आदर और सत्कार से अयोध्या ले आए।
अयोध्या में हर्षित प्रजा ने ऋषिवर ऋष्यश्रृंङ्ग और शान्ता का शंख और दुंदुभि बजाकर तथा पुष्पवर्षा करके स्वागत किया। नगरद्वार पर तोरण बनाए गए, पूरी नगरी रंगबिरंगी ध्वजा और पताकाओं से सुसज्जित कर दी गई। नगर के मार्गों पर सुगन्धित द्रव्यों का छिड़काव किया गया।
महर्षि ऋष्यश्रृंङ्ग को उत्तमसिंहसन प्रदान करके राजा दशरथ ने पाद्य पूजन किया। सभी रानियों ने शान्ता को सुंदर आभूषणों से सजाया और अनेक बहुमूल्य वस्त्र और रत्नादि भेंट किये। शान्ता और ऋष्यश्रृंङ्ग सुखपूर्वक वहाँ समय व्यतीत करने लगे।
कुछ कालखण्ड बीता और शुभ घड़ी का आगमन हुआ।
वसन्त ऋतु के आने पर और राजा दशरथ ने शीश झुकाकर ऋष्यश्रृंङ्ग ऋषि से पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर यज्ञ कराने का अनुरोध किया।
" मुनिवर! मैं इक्ष्वाकुवंशीय अयोध्या नरेश दशरथ आपको अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु यज्ञ कराने के लिए वरण करने का संकल्प करता हूँ।"
"साधुवाद राजन! आपका मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा। आप यज्ञसामग्री एकत्रित करावें और सरयू तट पर यज्ञ के यूप बनवावें। उत्तम मुहूर्त में अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा जायगा। ततपश्चात अश्वमेध यज्ञ के पूर्ण होते ही मैं पुत्रेष्टि यज्ञ करूँगा जिससे आपको चार अप्रतिम समस्त गुणों से सम्पन्न पुत्र प्राप्त होंगे और आपके कुल की शोभा बढ़ाएँगे।"
क्रमशः
( श्रीराम चरित्र की यह मनभावनी कथा बड़ी ही अद्भुत है। विभिन्न कवियों और टीकाकारों ने अपने-अपने ज्ञान और भक्तिभाव से कथा कही, लिखी और सुनाई है।
वाल्मीकि रामायण के हिन्दी अनुवाद में शान्ता और ऋष्यश्रृंङ्ग को दशरथजी की पुत्री और जामाता कहा गया है। कई अन्य पुस्तकों- ग्रंथों और स्थानों पर वर्णित है कि दशरथजी ने कौशल्या की बहन वर्षिणी और उनके पति अंगनरेश रोमपाद को सन्तान न होने पर अपनी ज्येष्ठा शान्ता को सौंप दिया था, किंतु वाल्मीकि जी के मूल संस्कृत ग्रंथ को समझने से ज्ञात होता है कि शान्ता दशरथजी के मित्र रोमपाद की ही पुत्री थीं। मानस में तुलसीदास जी ने पूर्ण भक्तिभाव से श्रीरामचरित को मन में रखा तथा किसी भी प्रकार के विवाद को स्थान न देते हुए दशरथजी की पुत्री शान्ता के बारे में कुछ नहीं लिखा।
अस्तु... समस्त ऋषियों मनस्वियों द्वारा रचित कथाओं को उचित समझते हुए हृदय में किसी प्रकार का संशय न रखकर मात्र श्रीराम के गुणों का मनन, यजन, चिंतन और उनकी कथा का श्रवण और पाठन करने का ही प्रयास करना चाहिए। जय सियाराम🙏)
क्रमशः
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