श्रीरामायण कथामृत १

 



सीयराम मय सब जग जानी
करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी।

आज पिंगल नामक विक्रम संवत 2081 के पौष मास की अमावस्या है। श्रीमहाभारत की कथा का वाचन और प्रतिलिपि पर इसका लेखन पूर्ण करने के पश्चात एक वर्ष से भी अधिक का समय व्यतीत हो गया है। श्रीकृष्ण कथापान के पश्चात उनके कृपाप्रसाद स्वरूप भाग्य का उदय हुआ और श्रीराम कथा का अध्ययन करने की प्रेरणा प्राप्त हुई।
'भाग छोट अभिलाष बड़'
हृदय में श्रीराम के गुणों, चरित और गाथा को पढ़ने- जानने की कामना उत्पन्न हुई।
श्रीराम की कथा हेतु अनेक सन्दर्भों और विस्तृत कथाओं को पढ़ने के लिए खोजने लगा।
परब्रह्म श्रीराम के गुणों की गाथा अनन्त है और असंख्य टीकाओं द्वारा ऋषियों, मनीषियों ने प्रभु की कथाओं का गान किया है। मानस और वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त श्रीराम कथा हेतु जो सन्दर्भ और पुस्तकें उपलब्ध हैं वह हैं- अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, रंगनाथ रामायण, कृत्तिवास रामायण, करपात्री जी की रामायण मीमांसा, योगवशिष्ठ, भुशुण्डि रामायण, चम्पू रामायण, कम्ब रामायण और इसके अलावा भी अनेकानेक टीकाएँ सुलभ हैं।
राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार।

मैंने रामकथा के अनन्त कोष से सर्वसुलभ गोस्वामी जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस को चुनकर हृदयंगम करने का प्रयास किया और सन्दर्भों तथा विस्तृत कथाओं के लिए श्रीमद्ववाल्मिकीय रामायण को साथ रखा।
अब श्रीराम ही मेरा उद्धार करें।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम! मामुद्धर।
यह जीवन अत्यन्त क्षुद्र तथा अल्पकालिक है, पानी के बुदबुद के समान। इसमें प्रत्येक सनातनधर्मी हेतु सच्चे आनन्द प्राप्ति का मात्र एक ही साधन है, और वह है ईश्वर की कथा का पान। जीवन के इस उत्तरार्ध में आकर मायाचक्र से कुछ समय निकालकर मैं इस अद्भुत रामकथा को स्वान्तः सुखाय ग्रहण करने के लिए उतावला होने लगा।
इस गाथा को पढ़ने पर लगा कि आधुनिक कथावाचकों और उपलब्ध प्रचलित कथाओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ ऐसा है जो हम जैसे अनेकानेक साधारणजन से अछूता रह गया है।
बड़े भाग से आज का दिन सोमवती अमावस्या का उत्तम दिवस है जो कलियुग में प्रचुर यश, सौभाग्य और आध्यात्मिक उन्नति देने वाली कही गई है।
प्रभु श्रीराम की कथा का वर्णन आरम्भ करने के लिए आज के सुंदर दिवस से अच्छा और क्या हो सकता है अतः इसे लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। प्रभु श्रीराम की कथा अनन्त है, उनके गुणों का गान उनकी कृपा से ही किया जा सकता है यह भी जानता हूँ।
कथा का आरम्भ उनकी इच्छा ही है, यात्रा के मार्ग में केवल उनकी कृपा से ही चला जा सकता है। प्रभु से अनुरोध है कि मेरे मार्ग में सहायक हों। श्री रघुनाथ जी की गाथा अतुल्य है, परब्रह्म श्रीराम तथा लक्ष्मण इसमें मेरे सहायक बने ऐसी कामना करता हूँ।
'रक्षणाय मम राम लक्ष्मणावग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌'
*****
श्री गणेशाम्बिकाभ्यानमः। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।

श्रीरामं शरणं समस्तजगतां रामं विना का गती
रामेणा प्रतिहन्यते कलिमलं रामाय कार्ये नमः।
रामात् त्रस्यति कालभीमभुजगो रामस्य सर्वे वशे
रामे भक्तिरखण्डिता भवतु मे राम त्वमेवाश्रयः॥

श्रीरामचन्द्र भगवान समस्त संसारको शरण देनेवाले हैं। श्रीराम के बिना दूसरी कोई गति नहीं है। श्रीराम कलियुग के समस्त दोषोंको नष्ट कर देते हैं; अतः श्रीरामचन्द्रजी को नमस्कार करना चाहिये। श्रीराम से कालरूपी भयंकर सर्प भी डरता है। यह सारा जगत् भगवान् श्रीराम के वश में है। श्रीराम के चरणों में मेरी अखण्ड भक्ति बनी रहे। हे राम ! आप ही मेरे आधार हैं, आपका ही आश्रय है॥

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।

इस पृथ्वी पर जब तक नदियाँ रहेंगी, पर्वत रहेंगे तब तक संसार में राम के चरित्र और गुणों की व्याख्या करने वाली इस अद्भुत रामायण कथा का प्रचार होता रहेगा।

सप्तसमुद्र पर्यन्त इस विशाल भूभाग पृथ्वी पर प्रजापति मनु महाराज से लेकर अनेक महान नरेशों ने साम्राज्य किया है। ऐसे ही महाप्रतापी सम्राट हुए जिन्होंने समुद्र को खुदवाया और जिनकी यात्रा में उनके साठ हजार पुत्र उन्हें घेर कर चलते थे, वह थे ऐश्वर्यशाली राजा सगर। 
राजा सगर इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजा की कुलपरंपरा में उत्पन्न हुए और इसी कुल में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान ऐतिहासिक काव्य की उत्पत्ति हुई है। राजाओं के राजमणि राजाराम के पुत्रों लव तथा कुश ने महर्षि वाल्मीकि से काव्य में रूप में इस ग्रंथ को प्राप्त किया और श्रीराम की सभा में इसका गान किया था। महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद की प्रेरणा और ब्रह्माजी के आशीर्वाद से इस अद्भुत महाकाव्य की रचना की थी। कालांतर में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सरल भाषा में इस कलिमल को दूर करने वाली रामकथा को जन-जन तक पहुँचाया और भगवान राम के चरित्र का गान लोककथाओं, जनश्रुतियों में होने लगा।

श्रीराम की कथा का श्रवण और नाम-रूप का पान जीवन में अमृत के आचमन के तुल्य है। लोकजीवन की प्रत्येक प्राणवायु में श्रीराम रचे बसे हैं।
प्रभु श्रीराम का नाम कभी जीवन से अलग न हो जाय, सदा स्मरण में बना रहे इसलिये आर्यावर्त की इस धरा पर उत्पन्न असंख्य जातियों, परिवारों ने कई पीढ़ियों तक अपने-अपने कुलों में उत्पन्न बच्चों के नाम प्रभु श्रीराम के नाम पर रखे। जिससे कि उनके मुख से पुनः पुनः प्रभु श्रीराम का नाम निकलता रहे। जब लोगों का घर-बार छूटा, श्रमिकों-बंधकों की तरह उन्हें देश के बाहर ले जाया गया तब भी प्रभु श्रीराम का स्मरण और रामचरित की पुस्तक उनसे छूटी नहीं। देश के कोने कोने में...विशेष रूप से ग्रामीण जीवन की श्वासोच्छवास में श्रीराम का नाम ऐसे ही निरंतर प्रवाहित होता रहता है जैसे देह-शिराओं में रक्त।
श्रीराम की कथा का श्रवण मन को प्रफुल्लित करके सभी प्रकार के माया और मोह बन्धन को दूर करने वाला है, इसका पठन और वाचन मन के कलुष को नेत्रों से अश्रुओं के रूप में निकाल बाहर करता है और यह स्वानुभूति इसके अध्ययन के समय कोई भी कर एकता है। यह अद्भुत महाकाव्य है, इसमें कदापि संशय नहीं। 

चित्रकूटालयं राममिन्दिरानन्द मन्दिरम्।
वन्दे च परमानन्दं भक्तानामभयप्रदम्।

चित्रकूट में निवास करने वाले भगवती इंदिरा माता सीता के आनंद निकेतन और अपने भक्तों को अभय प्रदान करने वाले परमानंद स्वरूप भगवान श्रीरामचंद्रजी को मैं नमन करता हूँ।

दुःस्वप्न नाशनं धन्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः।
नरोऽत्र श्रद्धया युक्तः श्लोकं श्लोकार्द्धमेव च॥
पठते मुच्यते सद्यो ह्युपपातककोटिभिः।
सतामेव प्रयोक्तव्यं गुह्याद्-गुह्यतमं तु यत् ॥

दुःखप्नको नष्ट करनेवाली यह कथा धन्य है। इसे प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिये। जो मनुष्य श्रद्धायुक्त होकर इसका एक श्लोक या आधा श्लोक भी पढ़ता है, वह तत्काल ही करोड़ों उपपातकोंसे छुटकारा पा जाता है। यह गुह्यसे भी गुह्यतम वस्तु है, इसे सत्पुरुषों को ही सुनाना चाहिये।


यह कथा है त्रेतायुग की।
कौशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद था।
देवताओं के लिए भी दुर्लभ पवित्र सरयू नदी के किनारे बसा हुआ वह नगर प्रचुर धन-धान्य से संपन्न, सुखी और समृद्धिशाली था। कौशल की उस जनपद में अयोध्या नाम की एक महान नगरी थी जो समस्त लोकों में विख्यात थी, उसे मनु महाराज ने बसाया था।
अयोध्या नाम की वह महापुरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। ( विभिन्न विद्वानों ने एक योजन को लगभग बारह किलोमीटर बताया है)
उसका विशाल राजमार्ग दोनों और सघन वृक्षों से आच्छादित होकर बड़ा ही मनोरम दिखता था। उसपर प्रतिदिन भाँति-भाँति के पुष्प बिखेरे जाते और केवड़े आदि सुगंधित जल का छिड़काव किया जाता था।
इस प्रकार वह सुंदर अयोध्या नगरी देवराज इंद्र की अमरावती के समान सुंदर और वैभवयुक्त जान पड़ती थी।
वर्तमान इक्ष्वाकुवंशीय राजा दशरथ ने अपने पुरुषार्थ और पुण्य कर्मों द्वारा अयोध्या को और अधिक समृद्ध और शक्तिशाली बना दिया था।
अयोध्या के विशाल भवन में स्वर्ण जटित बड़े-बड़े फाटक और दरवाजे शोभा देते थे। पृथक-पृथक बाजार  विभिन्न यंत्र और अस्त्र-शस्त्रों से संचित थे। उस नगरी में सभी कलाओं के ज्ञाता शिल्पी निवास करते थे। प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में स्तुति पाठ करने वाले सूत और मागध राजा की वंशावली का बखान करते थे। इसप्रकार अयोध्यापुरी सुंदर शोभा से संपन्न थी। ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं पर सूर्यवंश के ध्वज फहराते थे। असंख्यों शतघ्नियाँ (तोपें) उस पुरी की रक्षा हेतु स्थापित की गई थीं।
अयोध्यापुरी में चारों ओर उद्यान तथा फलों के बगीचे थे, विशाल वन संपदा उसे आच्छादित करती थी। अयोध्या चारो दिशाओं से पूर्णतया सुरक्षित थी, जिसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई थी। जिसमें प्रवेश करना दुष्कर और असम्भव था। अपने नाम को फलीभूत करने वाली यह नगरी शत्रुओं के लिए सर्वदा दुर्गम और दुर्जय थी। अनंत संख्या में घोड़े, हाथी, गाय बैल, ऊँट आदि पशुओं से वह भरी पूरी थी। विपुल फलदाई उस नगरी के कारण धन-कर देने में आगे रहने वाले नरेशों का समुदाय सदा उसे घेरे रहता था। विभिन्न देशों के निवासी वैश्य उसे पुरी की शोभा बढ़ाते थे।
अयोध्या के सभी महलों के निर्माण में नाना प्रकार के रत्नों और प्रचुर मात्रा में स्वर्ण का प्रयोग किया गया था। राजा दशरथ और उनके अमात्यों का गगनचुंबी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ता था। इस प्रकार अनेक सुखसज्जा से परिपूर्ण अयोध्या नगरी इंद्र की अमरावती के समान ही जान पड़ती थी।
धन-धान्य से भरपूर अयोध्यापुरी का जल इतना मीठा था मानो ईख का रस हो। अग्निहोत्री तथा संपूर्ण वेदों के पारंगत विद्वान श्रेष्ठ ब्राह्मण उसे पुरी में निवास करते, वे सब शास्त्रों के ज्ञाता और सात्विक विधियों से धन- धान्य, गऊओं और सम्पत्ति का दान करने वाले और सत्य में तत्पर रहने वाले थे।
अयोध्यापुरी में कहीं भी कोई कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक मनुष्य देखने में नहीं मिलता था। सभी पुरुष धर्मशील, संयमी, सदाचारी और सदा प्रसन्न रहने वाले थे।
वे सब महर्षियों की भांति निर्मल भी थे। कुंडल, मुकुट और पुष्पाहार से शून्य कोई भी पुरुष उस नगरी में दिखाई नहीं देता था।
किसी के पास भोग सामग्री की कमी नहीं थी। वे स्वच्छन्द होकर दान-धर्म करते और पुण्य का अर्जन करते थे। उनके स्वच्छ अंगों में चंदन का लेप लगा रहता था। ब्राह्मण सदा अपने कर्मों में रत रहते, इंद्रियों को वश में रखते, दान और स्वाध्याय करते थे।
उस नगरी में कोई भी ऐसा ब्राह्मण नहीं था जो नास्तिक हो, असत्यवादी हो अथवा शास्त्रों के ज्ञान से रहित हो। राजभक्ति से भरे हुए वे सब नगर निवासी दीर्घायु होते थे तथा सदैव धर्म तथा सत्य का आश्रय लेने वाले थे। वे सब स्त्री पुरुष अपने पुत्रों तथा परिवार के साथ सुख से रहते थे।
राजा दशरथ अयोध्यापुरी की रक्षा इस प्रकार करते थे जैसे महाराज मनु ने पूर्वकाल में की थी। राजा दशरथ ने उनकी कीर्ति को और बढ़ाया ही था।
अयोध्या पुरी के सम्राट महाराज दशरथ ने देश के समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया था जिससे अयोध्या का नाम सत्य एवं सार्थक ही गया था।
महाराज दशरथ के मंत्रिमंडल में समस्त गुणों से संपन्न आठ मंत्री थे। वे मन की दशा को देखकर ही उनके भाव को समझ लेने में समर्थ थे। वे सब सदा ही राजा के हित में लगे रहते थे तथा नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। वे सभी शुद्ध आचार-विचार से युक्त थे और राज्यकार्यों में निरंतर संलग्न रहते थे। इनमें से महामंत्री सुमन्त्र राजा दशरथ के परम स्नेही और सलाहकार भी थे और उन्हें राजा बड़ा सम्मान देते थे।
उस अयोध्या नगरी में वसिष्ठ और वामदेव नाम से विख्यात दो महर्षि थे जो राजा के पुरोहित भी थे। इनके अतिरिक्त सुयज्ञ, जाबालि, कश्यप, गौतम, मार्कण्डेय और कात्यायन भी महाराज दशरथ को अपने सुझावों और निर्देशों से उपकृत करते रहते थे।
महाराज दशरथ के सभी मंत्री और ऋषिगण व्यवहार कुशल थे। उनके सौहार्द की अनेक अवसरों पर परीक्षा की जा चुकी थी। वह अवसर पड़ने पर अपने पुत्र को भी उचित दंड देने में  हिचकते न थे। वे राजकोष के संचय तथा चतुरंगिणी सेना के विस्तार में लगे रहते थे। उनमें सदा शौर्य और उत्साह भरा था वे राज्य के भीतर रहने वाले सद्पुरषों की रक्षा करने में संलग्न रहते थे। वे सभी ब्राह्मण और क्षत्रियों को कष्ट न पहुँचाते हुए कर प्राप्त करते और न्यायोचित धन से राजा का कोष भरते थे। वह सब मन्त्रीगण अपराधी पुरुष के बलाबल तथा अपराध को देखकर उसके प्रति कठोर अथवा मृदु दंड का प्रयोग करते थे। उन सब के भाव शुद्ध और विचार एक थे। उनकी जानकारी में अयोध्यापुरी अथवा कौशल राज्य के भीतर कहीं भी एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था जो मिथ्यावादी हो, दुष्ट अथवा परस्त्रीगामी अथवा लंपट हो। संपूर्ण राष्ट्र में पूर्ण शांति थी। उनमें राजकीय मंत्रणा को गुप्त रखने की पूर्ण शक्ति थी, वह सूक्ष्म विषय का विचार करने में अतिकुशल थे। ऐसे गुणवान मंत्रियों के साथ रहकर निष्पाप राजा दशरथ उसे भूमंडल का शासन करते थे। वह गुप्तचरों के द्वारा अपने और शत्रु राज्य के कार्यकलाप पर पूर्ण दृष्टि रखते थे तथा प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते थे।
राजा दशरथ सदा अधर्म से दूर रहते थे और यही कारण था कि तीनों लोकों में उनकी प्रसिद्धि छाई हुई थी। वह उदार हृदय तथा सत्यप्रतिज्ञ थे।
राजा दशरथ अयोध्या में ही रहकर पृथ्वी का शासन करते थे और कहा जाता था कि उन्हें कभी अपने से बड़ा अथवा अपने समान भी कोई शत्रु नहीं मिला।
उनके मित्रों की संख्या अनंत थी। सभी सामंत उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे। उनके प्रताप से राज्य के सारे कंटक नष्ट हो गए थे।
इन सब गुणों से युक्त राजा को भी विधि के विधान के आगे नतमस्तक होना पड़ा था।

कहते हैं न...कि ईश्वर जब अनन्त सुख, सुबुद्धि और समृद्धि देते हैं तो एक न एक दुख का कारण भी साथ अवश्य देते हैं जिससे कि मनुष्य को अपने देवता होने का भ्रम न रहे।
ऐसा ही कुछ राजा दशरथ के साथ हुआ, उनकी वय जैसे- जैसे बढ़ती जाती..उनकी चिन्ता में गुणोत्तर वृद्धि होती जाती थी।

क्रमशः


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सप्तश्लोकी दुर्गा Saptashlokee Durga

नारायणहृदयस्तोत्रं Narayan hriday stotram

हनुमत्कृत सीतारामस्तोत्रम् Hanumatkrit Sitaram stotram