आइए पढ़ें महाभारत की कथा...
श्री महाभारत कथा
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महाभारत एक महाकाव्य है....एक कथा जिसमें सार है-
हम सबके जीवन का...
निश्चित रूप से महाभारत की कथाएँ हम सब ने कभी न कभी अवश्य सुनी हैं ...और कुछ सूक्ष्म कहानियाँ अनसुनी भी रह गईं हैं। तत्समय कुरुकुल का पारिवारिक संघर्ष और महायोगी श्रीकृष्ण की कथाएँ निश्चित ही पढ़नीय हैं।
मेरा यह प्रयास है उस सनातन संस्कृति और धर्म की घटनाओं तक पहुँचने का...सफलता उस परमपिता के हाथ है।
भारतीय सनातन संस्कृति का महान ग्रन्थ जय, विजय, भारत और महाभारत इन सब नामों से प्रचलित है।
इसमें अमूल्य रत्नों के अपार भंडार छुपे हैं।
इस महान महाकाव्य की तुलना विश्व की किसी भी रचना से करना सूर्य के प्रकाश में दीप जलाने के तुल्य है।
भगवान वेदव्यास ने इसमें वेदों के रहस्य, उपनिषदों के सार, पुराण, इतिहास, व्याकरण, संस्कृति, दर्शन, भूगोल, नक्षत्रज्ञान, तीर्थों की महिमा, धर्म, भक्ति, प्रेम, अध्यात्म, कर्मयोग और ज्ञान-विज्ञान-व्यवहार इन सब के गूढ़ अर्थ भर दिए हैं।
एक लाख से अधिक श्लोकों वाला ऐसा महाकाव्य न कभी पहले लिखा गया और न भविष्य में लिखा जा सकता है।
'न भूतो न भविष्यसि'।
ऐसा कहा जाता है कि जो कुछ भी इस अनंत और नश्वर विश्व मे कभी घटा या कभी घट सकता है, तो वह सब इस महाकाव्य में है।
कई स्थानों पर ऐसी भ्रांति है कि महाभारत को घर में रखना या पढ़ना अशुभकारी होता है पर यह सही नहीं है।
इस ग्रंथ में ही विस्तार से इसे पढ़ने के लाभ दिए गए है।
कुछ विद्वतजनों ने अपनी विद्या पर पकड़ बनाए रखने के लिए सम्भवतः ऐसा कहा होगा जिससे कि अपात्र के पास यह ज्ञान पहुँच न सके।
दो पीढ़ियों पहले तक इसकी कहानियाँ घर-घर में सुनाई जाती थीं, लोग इस महान ग्रंथ काव्य के बारे में बातें करते थे पर आज कुछ लोग ही इनके पात्रों के नाम और टीवी पर दिखाई कहानी ही जानते हैं।
सनातन परंपराओं के लगातार क्षरण के साथ ही अगली पीढ़ी सम्भवतः इससे पूर्णतया अनभिज्ञ ही रहेगी।
आज किसी के पास समय नहीं है। पूरे मूल महाभारत ग्रन्थ के अथाह सागर को पढ़ना सबके लिए सम्भव नहीं है, मैंने इसे लिखने की कोशिश की है और इस प्लेटफॉर्म पर छोटी छोटी कुछ मिनटों की कड़ियों में इसे प्रकाशित करने का प्रयास करूँगा।
मैंने बहुत समय से इस महाग्रंथ के कथानक पर लिखना आरम्भ किया था। महाभारत ने मुझे जीवन में सर्वाधिक प्रभावित किया। इस पूरे ग्रन्थ के छह-सात सहस्त्र पृष्ठों का अध्ययन करना और इसे समझ पाना इतना भी सरल नहीं है और इससे भी बड़ी बात यह कि बिना भगवतकृपा के कदापि सम्भव नहीं है।
अतः इसे सरल भाषा में जन जन तक पहुँचाने का एक गिलहरी प्रयास ही समझना उचित होगा।
मौलिकता तो मात्र भगवान व्यासजी का अधिकार रहा है पर उनके असीम विस्तृत महाकाव्य से कुछ घटनाओं को अपनी आज की भाषा मे संकलन का यह् प्रयास वैसा ही है जैसे समुद्र से कोई अपने कार्य के लायक कुछ लोटे जल भर ले।
कोई भी त्रुटियाँ पाठकों को मिले तो अवश्य ध्यान दिलाएँ जिसे सुधार कर प्रसन्नता होगी।
आगे हरि इच्छा..।
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MAHANAAD-1
(Udbhav)
महानाद-१
(उद्भव)
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( महाभारत की कथाओं पर आधारित उपन्यास )
ॐ श्रीगणेशाय नमः ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
आद्यन्तमङ्गलंजातसमानभाव-
मार्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम् ।
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं
सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशम्॥
(महाशिवपुराण/विद्येश्वर संहिता १/१)
वह आदि से अंत तक नित्य तथा सदा ही मंगलमय हैं, जिनकी कोई भी समानता या तुलना अन्यत्र कहीं भी नहीं की जा सकती है, जो आत्मा के स्वरुप को प्रकाशमान करने वाले परमात्मा हैं, वह अपने पञ्चमुख से विनोद में ही पञ्च प्रबल कर्म-कृत्यों-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव एवं अनुग्रह करने वाले हैं । ऐसे ही अनादि परमपिता परमेश्वर अम्बिकापति भगवान शिव-शंकर का मैं पुनः-पुनःमन ही मन में मनन, अर्चन, चिन्तन और पूजन करता हूँ ।
१
रात्रि का पूर्ण अवसान हो चुका था ।
प्रातःकाल हुआ और भगवान अंशुमाली दिग-दिगान्तर में दिग्विजय हेतु निकल पड़े थे । आकाश सिन्दूर से स्नान कर चुका था। आकाशचारी अपने कर्म हेतु निकल चुके थे। प्रमादी मेघ वायुदेव के हाथों विवश यत्र तत्र गतिमान हो रहे रहा।
इधर सूर्यदेव ने अपनी रक्तिम सप्त-रश्मियाँ बिखेरीं, वर्षों से अखण्ड समाधि में ध्यानस्थ परमपुरुष भगवान वृषकेतु ने भी आज अपने नेत्र खोले थे और जगत में ब्रह्मतेज का मार्ग प्रशस्त हो गया था ।
रजतगिरि कैलाश पर प्रकृति प्रसन्नता से झूम उठी थी । चहुँओर वातावरण जैसे जीवन्त हो गया । देवदारु और श्वेतभोज जैसे हिमवृक्ष भी सुन्दर सुगन्धित पुष्पदलोंसे लद गये; उनपर भौरें गुंजन करने लगे थे, मानो वसंत ही आ गया था।
कुमार कार्तिकेय, श्रीगणेश और नंदी महाराज ने गणों समेत कर्पूरगौर शिव के सम्मुख साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया ।
‘जय-जय हे करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो’ के जयघोष से गणपर्वत गूँज उठा था । माता जगदम्बा देवाधिदेव को नमन कर नव पल्लवित पुष्पों तथा भस्म-चन्दन के लेप से उनका श्रृंगार करने में तल्लीन थीं । आज सम्पूर्ण जगत को तृप्ति प्रदान करने वाली माता अन्नपूर्णा ने नानाप्रकार के भोज्य पदार्थ महादेव के सम्मुख नैवेद्य हेतु समर्पित किये।
कुमार कार्तिकेय चकित थे। अपने पिता महादेव की इतनी दीर्घावधि की समाधि से उनके हृदय में उपजी उत्सुकता प्रत्यक्ष हो उठी थी । कौतूहलवश अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कार्तिकेय पिता के सम्मुख गये तो प्रेम में भरकर महादेव ने कुमार को अपने पास बैठा लिया ।
कार्तिकेय ने पिता से प्रश्न किया—
" पिताश्री ! आप निरन्तर भगवान श्रीराम के नाम का उच्चारण करते हैं, वह सच्चिदानंद कहाँ पर निवास करते हैं ?"
अनादि शिव मुस्कुराए। उनकी मुस्कान से पर्वतराज कैलाश का कण-कण जैसे प्रफुल्लित हो उठा था । सुगंधित वायु का संचरण शिवगणों को आनन्दित कर रहा था । कार्तिकेय के प्रश्न को सुनकर महाशिव ने धीमे से अपने नेत्र बन्द कर लिए; एक बार पुनः अपने प्रभु का ध्यान किया और कहा--
" यह उस समय की बात है स्कन्द ! जब तीनों लोकों का पालन करने वाले मेरे प्रभु भगवान श्रीराम के नारायण स्वरूप का निवास स्थान बद्रीकाश्रम में था, नर तथा नारायण सतयुग में सभी के दर्शन हेतु वहाँ पर निवास करते थे । भगवान के दर्शन मात्र से सभी जिज्ञासुओं को धर्म का ज्ञान होता था और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती थी ।
युग बदला; सतयुग के पश्चात त्रेतायुग आया । इस युग में नारायण के दर्शन मात्र देवताओं और ऋषियों को ही हो पाते थे।
इसके बाद जब अनाचार तथा पाखण्ड बढने लगा, देवताओं और ऋषियों में भी अहंकार जागृत हो गया तो नारायण बद्रिकाश्रम को छोड़कर क्षीरसागर में चले गये । पुत्र ! जैसे ही अहंकार की वृद्धि होती है भगवान जीवन से भी तत्क्षण विदा हो जाते हैं।
देवतागण और समस्त प्राणी बद्रिकाश्रम में श्रीहरि को खोजने लगे । जब भगवान कहीं भी न मिले, तब सभी व्याकुल हो गये । ऐसे में सभी देवता और ऋषिगण ब्रह्मा जी के पास गये और भगवान नारायण के बारे में पूछा ।
“ प्रभु ब्रह्मदेव ! नारायण के दर्शन नहीं हो रहे हैं। हम सब आकुल हैं ।
ब्रह्माजी को भी कुछ ज्ञात न था, वह निरुत्तर हो गये और अधीर भी । खोजने लगे श्रीहरि को । बस खोजते-खोजते क्षीरसागर तक पहुँच गये । क्षीरसमुद्र में शेषशय्या पर पद्मनाभ स्वरूप भगवान योगनिद्रा में लीन थे । वहाँ भी श्रीहरि के दर्शन ब्रह्माजी के अतिरिक्त किसी और को नहीं हुए।
ब्रह्माजी ने नारायण की स्तुति की और उन्हें समस्त जगत के उद्धार करने और सब देवगणों और प्राणिमात्र को दर्शन देने की प्रार्थना की ।
सच्चिदानंद भगवान ने कहा-- “ अनाचार की समाप्ति और धर्म की स्थापना के लिए मैं शीघ्र ही धरती पर अवतार लूँगा।" इतना कहकर शिव ने कार्तिकेय की तरफ देखा ।
कार्तिकेय बड़े ध्यान से पिता की बातें सुन रहे थे।
“...फिर क्या हुआ पिताश्री ? क्या स्वयं नारायण अभी भी क्षीरसागर में ही विराजमान रहते हैं ?"
" हाँ पुत्र ! द्वापर के बाद क्षीरसागर ही भगवान श्रीहरि का स्थाई निवास है, जहाँ वह माता के साथ निवास कर रहे हैं । नारदतीर्थ से बद्रिकाश्रम तक की यात्रा करने वाला तथा वहाँ का प्रसाद ग्रहण करने वाला प्राणी परम मोक्ष प्राप्त करता है तथा वैकुण्ठ में उसे स्थान मिल जाता है, परन्तु अब किसी भी प्राणी को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं मिल पाते हैं ।”
कार्तिकेय के मुख पर अब सन्तुष्टि के भाव थे । उनकी जिज्ञासा शान्त हुई थी, परन्तु अब माता पार्वती का कौतूहल बढ गया था । वह महाशिव के चरणों में आ विराजीं ।
“ देव ! भगवान ने पुनः जब धर्म की स्थापना हेतु अवतार ग्रहण किया, वह कथा आपके मुख से सुनने की तीव्र उत्कंठा है । आपने त्रेता युग में अवतरित श्रीराम के गुणसमूहों की उस परम् दिव्य कथा का श्रवण मुझे कराया था जो महात्मा काकभुसंडी ने गरुड़ जी को सुनायी थी। आज मुझे द्वापरयुग में धर्म की स्थापना हेतु अवतार लेने वाले श्रीहरि के अवतार योगेश्वर श्रीकृष्ण की कोई कथा सुनाइए । मैंने सुना है कि द्वापर में श्रीकृष्ण ने मानव रूप में होते हुए भी मनुष्यों को अपने विराट रूप के दर्शन दिये और उनकी रक्षा भी की ।” पार्वती ने कहा ।
त्रिपुरारी कहने लगे- “अच्युत और अनन्त श्रीहरि की तरह ही उनकी कथा भी अनन्त हैं । जन्म-जन्मान्तर सुनते रहने पर भी यह कथाएँ कभी समाप्त नहीं होती । आप सौभाग्य शालिनी हैं जो इस अनुपम कथा का श्रवण करने की कामना रखती हैं । देवताओं के अतिरिक्त मात्र मनुष्य ही श्रीहरि की कथा को सुनने का अधिकारी होता है । विभिन्न योनियों में कष्ट प्राप्त करने के पश्चात प्राणिमात्र को मोक्ष प्राप्ति का एक अवसर प्राप्त होता है और ईश्वर उसे मनुष्य का जन्म प्रदान करते हैं ।
“ क्या पृथ्वी लोक में मनुष्य की सहायता ईश्वर भी करते हैं देव !” माता ने प्रश्न किया ।
“ अवश्य देवी ! मृत्युलोक में अपने अस्तित्व का अभिमान न करके और महामाया से भ्रमित हुए बिना निष्काम कर्म करते हुए ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण किया जाय तो ईश्वर उसकी सहायता करते ही हैं, जैसे उन्होंने पाँचों पाण्डवों, कुन्ती और द्रौपदी की सहायता की ।
द्वापर में साक्षात् परब्रह्म ने ही श्रीकृष्ण स्वरूप में देवताओं, गउओं, ब्राह्मणों, साधुओं-संतों और पाप के बोझ से दबी वसुन्धरा को बचाने के लिए पुनः अवतार लिया था । उनकी बाललीलाएँ बड़ी सुखदायक और कल्याणकारी हैं, परन्तु आज मैं श्रीकृष्ण की उन लीलाओं की कथा का श्रवण कराता हूँ जो धर्म की स्थापना और कर्मयोग के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए उन्होंने पाण्डवों के सहायतार्थ की।
महामुनि व्यास भी उसी काल में उत्पन्न हुए और उन्होंने सब कथाएँ विस्तार से लिखीं हैं । व्यास के शिष्य हुए हैं सूतपुत्र रोमहर्षण और ऋषि वैशम्पायन । भगवान श्रीहरि के आदेशों से ब्रह्माजी द्वारा रचित सृष्टि की चरणबद्ध ये कथाएँ ऋषि रोमहर्षण के पुत्र सूतकुमार उग्रश्रवा ने महर्षि शौनक को विस्तार से सुनायी थीं और कृष्ण द्वैपायन व्यास के शिष्य वैशम्पायन ने जनमेजय को ।”
“ प्रभु ऽऽ ! मुझे वह सब कथाएँ सुननी है ।” उमा ने महादेव के चरण पखारे और निवेदन किया ।
यह कथानक बड़ा ही कल्याणकारी है और निश्चित ही मनुष्य को परम सुख प्रदान करता है। यह परमसुख मायिक-सुख की भाँति क्षणिक नहीं है, यह जीवन में शान्ति और संतुष्टि प्रदान करता है, इससे ही जीवन में धर्म का प्रवेश होता है । जीवन में धर्म के आगमन से ही सत्य, सदाचार, करुणा, मौन और विनम्रता जैसे गुणों का समावेश होने लगता है, तब द्वेष, क्रोध, तृष्णा और वैमनस्य जीवन से शनैः-शनैः विदा लेने लगते हैं; माया में आकंठ डूबे सामान्य मनुष्य को यह ज्ञान अपने जीवन की ऐसी अवस्था में जाकर प्राप्त होता है, जब उसके पास अधिक समय शेष ही नहीं रह जाता । विरले मनुष्य माया को त्याग कर वैराग्य की ओर गमन करते हैं और भगवान का सायुज्य प्राप्त करते हैं । आइये सुनिये वह अद्भुत कथा जो महर्षि व्यास जी के शिष्यों ने जनमेजय को सुनाई थी ।”
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