आइए पढ़ें महाभारत कथा 4
भाग ३ से आगे ......
ज्येष्ठ यदु तो ययाति का बहुत आज्ञाकारी पुत्र था, ययाति को सहसा विश्वास ही न हुआ कि उनका पुत्र ऐसी अवज्ञा भी कर सकता है।
वे अपने दूसरे पुत्रों की ओर उन्मुख हुए।
" पुत्र तुर्वसु ! गुरु शुक्राचार्य के शाप से मैं अभागा ऐसी जर्जर वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुका हूँ। मेरी सभी इच्छाएँ अभी तक तृप्त न हो सकी हैं मेरे प्रिय ! क्या तुम मुझे अपनी युवावस्था दे सकोगे ?"
तुर्वसु के साथ ही साथ ययाति के पुत्र दुह्यु ने भी कहा— “ नहीं-नहीं, सहस्र वर्ष की वृद्धावस्था...? हमें तो आप क्षमा ही करें पिताजी ।” ...और इसके पूर्व ही कि ययाति कुछ और कहते वे दोनों शीघ्रता से वहाँ से पलायन कर गए।
ययाति ने बड़े ही दीन भाव से अपने पुत्र अनु की ओर देखा।
अनु ने कहा-- “ पिताजी ! आप से मैं बहुत प्रेम करता हूँ परन्तु आपका शाप स्वयं ले लूँ और अपना यौवन आपको दे दूँ, ऐसा मैं नहीं कर सकूँगा, मेरे इस सुन्दर शरीर और उन्मुक्त युवावस्था की अभी तो मुझे आवश्यकता है अतः मुझे क्षमा करें।
ययाति को लगा...मैंने इन पुत्रों को जन्म दिया...पाला-पोसा और समस्त सुख दिए। सत्य ही है, विपत्ति में सभी अपने भी साथ छोड़ जाते हैं।
राजा कुछ न बोल सके...अपनी अंतिम आशा के रूप में तन और मन से अत्यन्त दुर्बल हो चुके राजा ययाति ने पुरु की ओर देखा—
देवात्मा पुरु ने कहा— “ मेरा तो यह अस्तित्व ही आपके कारण है पिताश्री, जब आपका हृदय ही इतने वर्षों के सांसारिक भोगों से तृप्त न हो सका तो इसका अर्थ है, यह यौवन व्यर्थ ही है; इससे मुझे भी तृप्ति कहाँ मिल सकेगी ? यदि मैं आपको अपनी यह तुच्छ और अल्प समय रहने वाली युवावस्था दे सकूँ तो मेरा सौभाग्य ही होगा। मैं सहर्ष तत्पर हूँ, मैं यहाँ विराजमान दृश्य और अदृश्य समस्त देवताओं को साक्षी मानकर तुरंत ही अपनी यह यौवनावस्था आपको देता हूँ ।”
उसने प्रेमपूर्वक पिता के शाप रूपी कुरूप और जीर्ण बुढ़ापे को स्वयं पर ग्रहण कर लिया और बदले में राजा ययाति ने पुनः यौवन प्राप्त कर लिया और विषय-भोगों का प्रसन्नतापूर्वक उपयोग किया ।
इस प्रकार उन्होंने सहस्र वर्ष तक यौवनावस्था का पुनः आनन्द प्राप्त किया ।
संभवतः इसी काल में इक्ष्वाकु और नाभाग से सूर्यवंश का भी प्रारम्भ हुआ ।
राजा ययाति सहस्र वर्षों की लंबी यौवनावस्था पूर्ण हो जाने के पश्चात अपने पुत्र पुरु के पास आए और बोले--
" पुत्र ! मैंने तुम्हारे प्रदत्त यौवन द्वारा अनेक विषयभोग और आनन्द प्राप्त किए, परन्तु मेरी ही नहीं मनुष्य मात्र की यह भौतिक और दैहिक कामनाएँ कभी भी तृप्त नहीं होती, जिस प्रकार अग्नि में घृत डालने से अग्नि और भी अधिक प्रज्ज्वलित होती है उसी प्रकार कामनाएँ भी अधिक से अधिक बढ़ती चली जाती हैं । इस पूरी पृथ्वी पर जितना भी धन, स्वर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं; वह सभी यदि एक ही मनुष्य को मिल जाए तब भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता है । सांसारिक तृष्णा का त्याग ही परम सुख है अतःअब मैं इस तृष्णा का त्याग करके परमात्मा की भक्ति में लगूँगा। तुम मेरे सबसे आज्ञाकारी पुत्र हो। सबसे छोटे होने के बाद भी मैं नहुष पुत्र ययाति तुम्हें राज्य सिंहासन पर विराजमान करता हूँ ।”
इसके पश्चात उन्होंने विधिपूर्वक महात्मा पुत्र पुरु को उसकी युवावस्था लौटा दी तथा उसका राज्याभिषेक करके स्वयं तपस्या करने के लिए वन को चले गये ।
******
८
कालान्तर में ययाति के पुत्र यदु से यादवों का वंश चला ।
तुर्वसु से यवन उत्पन्न हुए।
दुह्यु से भोज तथा अनु से म्लेच्छ जातियों का प्रादुर्भाव हुआ।
राजा पुरु से आरम्भ हुआ वह यशस्वी वंश जिसे पुरुवंश कहा जाता है ।
पुरुवंश में मतिनार नाम के महाप्रतापी राजा हुए, जिन्होंने राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ किया तथा तंसु सहित चार महातेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया ।
तंसु के पुत्र थे ईलीन, जिन्होंने अपने बाहुबल से एक समय सारी पृथ्वी जीत ली थी।
ईलीन के पाँच पुत्र हुए, जिनमें सबसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हुए महाप्रतापी महाराज दुष्यन्त।
दुष्यन्त और शकुन्तला से महान शक्तिशाली और यशस्वी भरत उत्पन्न हुए जिनसे भरतवंश जाना जाता है ।
महाराज दुष्यन्त को महान प्रतापी कुरुवंश का विस्तार करने तथा उनका नाम इतिहास में अमर रखने का श्रेय जाता है।
राजा दुष्यन्त अत्यन्त पराक्रमी थे तथा उस कालखंड में सम्पूर्ण पृथ्वी के पालक भी।
कहा जाता है कि उनमें राज्य में किसी को पृथ्वी पर हल चलाने की भी आवश्यकता न होती थी, क्योंकि पृथ्वी बिना बोए और जोते ही भरपूर अनाज पैदा कर देती थी। सभी अत्यन्त सुखी थे तथा कोई पापकर्म न करता था। उनके राज्य में चोरी और भूख का कोई भी भय न था। व्याधि-बीमारी किसी को न होती थी तथा अकाल मृत्यु भी कोई नहीं मरता था। सभी वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म और कर्म का स्वेच्छा से पालन करते थे अतः कोई मनुष्य वर्णसंकर संतान भी उत्पन्न नहीं करता था। सभी मनुष्य देवताओं की आराधना करते थे तथा राजा के आश्रय व दान पर निर्भर होकर सुखपूर्वक निवास करते थे ।
राजा दुष्यन्त सभी प्रकार की अस्त्र-शस्त्र कला के ज्ञाता थे ।
एक समय की बात है...राजा वन में शिकार के लिए निकले। सैकड़ों सैनिक योद्धा दलबल सहित उनके साथ थे ही।
सुदूर चलते हुए राजा अपने समस्त योद्धाओं समेत एक बियाबान जंगल में पहुँच गये और सैकड़ों हिंसक पशुओं का आनन्दपूर्वक शिकार करने लगे।
एक हिंसक पशु का पीछा करते हुए राजा अपनी तीव्र गति से काफी आगे अकेले ही निकल गये थे और उनके सैनिक चाहकर भी राजा की तेज गति के समक्ष उनका साथ न दे सके। राजा दुष्यन्त अकेले थे तथा भूख-प्यास से व्याकुल भी। थोड़ा आगे बढनेपर राजा ने एक अत्यन्त मनोहारी वन में प्रवेश किया।
वह क्षेत्र बड़ा ही व्यवस्थित था तथा उद्यान जैसा प्रतीत होता था। ऐसा लगता था, जैसे कोई उस क्षेत्र की निरन्तर देखभाल करता हो। चारों और सुगंधित वायु बह रही थी। घने फलदार और छायादार वृक्षों से अटा पड़ा था वह वन प्रदेश। तीव्र हवा से फूलों भरी डालियां राजा पर पुष्पवर्षा कर रही थी तथा धरती पर पुष्पों से कालीन सा बिछ गया था। राजा उस उत्तम शोभा को निहार कर अपनी भूख-प्यास भूल गये तथा सुध खो बैठे थे। उनकी थकान भी कम हो गई थी। वहीं समीप ही मालिनी नदी बहती थी ।
उसके तट पर ही राजा ने अग्निहोत्र और आश्रम देखा। राजा दुष्यन्त को बहुत हर्ष हुआ। वह आश्रम महात्मा कण्व का था, जहाँ ऋषियों का समूह सम्भवतः निवास करता होगा ऐसा सोचकर राजा दुष्यन्त उस ओर चल पड़े।
राजा की सारी सेना भी तब तक वहाँ पहुँच चुकी थी। राजा ने सबको वही रुकने का संकेत किया तथा स्वयं आश्रम में प्रवेश कर गये। आश्रम के अन्दर महर्षि समेत कोई भी प्राणी दिखलाई न पड़ता था। राजा कुछ क्षणों तक वहीं खड़े रहे...कोई भी आहट न देख उन्होंने पुकारा--
" अरे ऽऽ...
...कोई है यहाँ पर ?"
टिप्पणियाँ
1 प्रेम मंत्र
2 पूर्व को वापस जीतें
3 गर्भ का फल
4 प्रमोशन मंत्र
5 सुरक्षा मंत्र
6 व्यापार मंत्र
7 अच्छी नौकरी का मंत्र
8 लॉटरी मंत्र और कोर्ट केस मंत्र।