पढ़ें महाभारत कथा 3

 भाग २ से आगे...

देवताओं के गुरु थे ऋषि अंगिरा के परम तेजस्वी और विद्वान पुत्र बृहस्पति और दैत्यों के गुरु और पुरोहित थे संजीवनी विद्या जानने वाले परम प्रतापी शुक्राचार्य ।

अमृत पीकर देवतागण अमर हो चुके थे । वे दानवों का वध कर देते । दानवों की संख्या कम होने लगी तब उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य के निकट जाकर अपनी व्यथा कही-- दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने उनको सान्त्वना दी । 

“ चिंतित न हो शिष्यों ! मैं तुम सबको पुनः जीवित कर दूँगा ।” 

दैत्य प्रसन्न हो गए । शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन सबको पुनर्जीवित कर देते थे, परन्तु देवगुरु बृहस्पति को यह विद्या आती न थी ।

देवताओं ने गुरु बृहस्पति के पुत्र कच के पास जाकर कहा--

“ हे ब्राह्मण देवता ! हम आपके सेवक हैं और भ्राता भी । आपको तो पता ही है कि शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या के कारण हम सभी भयाक्रांत हैं । दैत्य अब मरते ही नहीं हैं । कृपया आप शुक्राचार्य से वह संजीवनी विद्या प्राप्त करें ताकि हमारा और समस्त जगत का कल्याण हो ।”

“ मैं अवश्य प्रयत्न करूँगा ।” परोपकारी हृदय वाले कच तुरन्त ही तैयार हो गये ।

देवताओं ने कच को शुक्राचार्य के पास भेज दिया । कच दानवराज वृषपर्वा के नगर में गये तथा शुक्राचार्य के पास उपस्थित होकर उन्हें प्रणाम किया और बोले--

" मुनि अंगिरा मेरे पितामह हैं और मैं आपके मित्र बृहस्पति का पुत्र कच हूँ । आपको सादर नमन करता हूँ महागुरु शुक्राचार्य ! आप मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण करें । मैं आपको गुरु मानता हूँ और सहस्र वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करने की अनुमति माँगता हूँ ।”

इतनी विनम्र भाषा और प्रेम से दैत्य कभी भी शुक्राचार्य से बोलते न थे । शुक्राचार्य ने प्रसन्न होकर कच की प्रार्थना स्वीकार कर ली और कच को अपना शिष्यत्व प्रदान किया । उसने अपनी कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान तथा सेवाभाव से गुरु शुक्राचार्य और उनकी पुत्री देवयानी को प्रसन्न कर दिया ।

दैत्यों को कच के शिष्य बनाये जाने से बहुत बुरा लगा परन्तु गुरु की इच्छा का विरोध करने की उनमे शक्ति न थी । वे सब अवसर ढूँढने लगे । 

बहुत वर्ष बीत गये । 

दैत्यों को लगने लगा कि गुरुसेवा करते-करते कच अवश्य ही दैत्यगुरु से संजीवनी विद्या प्राप्त कर लेगा, अतः एक दिन कच जब पशुओं को चराने के लिए वन में गया था तो वहाँ दानवों ने क्रोध में भरकर कच को मार डाला और उसके टुकड़े-टुकड़े कर श्वानों तथा श्रृंगालो को खिला दिया ।

ऋषि पुत्री देवयानी ने जब देखा कि गउएँ सन्ध्या को लौट आयी हैं पर उनके साथ कच नहीं हैं तब उसने शुक्राचार्य से कहा--

“ पिताजी ! अवश्य ही कच को इन दुष्ट और दुरात्मा दानवों ने मार डाला है । मैं चाहती हूँ कि आप कच को पुनर्जीवित कर दें ।”

शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और कच को आवाज दी । संजीवनी विद्या के कारण कुत्तों और सियारों का पेट फाड़ कर कच के टुकड़े एकत्रित हो गये और उनमें जीवन का संचार हो गया । जीवित होने के बाद असुरों द्वारा स्वयं को मारे जाने की घटना कच ने देवयानी को सुनायी ।

देवयानी कच के मृदु स्वाभाव और गुरु के प्रति अनन्य सेवाभाव से उसे पसंद करने लगी थी । एक दिन उसने कच से कहा—

“ क्या तुम मेरे लिए सुन्दर सुगन्धित मोगरे के पुष्पों को वेणीसज्जा हेतु लाकर दोगे ?” 

कच तुरन्त ही तैयार हो गया और वन में चला गया ।

कच को वन में अकेले जान कर दानवों ने फिर से उन्हें मार डाला और समुद्र के जल में घोल दिया, जिससे कि गुरु शुक्राचार्य उन्हें जीवित न कर सकें, परन्तु इस बार भी शुक्राचार्य ने उसके चूर्ण को समुद्र से अलग करके को जीवनदान दे दिया ।

दानव बड़े दुखी थे, एक बार पुनः अवसर पाकर उन्होंने कच को जलाकर मार डाला और इस बार जले हुए शव का चूर्ण बनाकर अपने गुरु शुक्राचार्य को ही मदिरा में मिला कर पिला दिया । 

अब दानव बड़े प्रसन्न हुए । उन्हें कच से छुटकारा मिल गया था ।

देवयानी से रहा नहीं गया । वह दुखी हो गयी । उसने अपने पिता शुक्राचार्य को पुनःकच को जीवित करने की प्रार्थना की । शुक्राचार्य ने संजीवनी का प्रयोग किया तो मदिरा में मिले कच पेट से ही शुक्राचार्य से धीरे से बोले--

“ प्रभु ! मैं आपका उदर चीरकर निकल नहीं सकता । अब मुझे जीवन प्रदान करने की इच्छा न करें । यह सम्भव नहीं कि मैं स्वयं के जीवन हेतु आपका उदर फाड़कर बाहर निकलूँ और आप मृत्यु को प्राप्त हो ।” यह कहकर उसने अपने साथ हुई घटना सुनायी ।

शुक्राचार्य ने कहा—

“ अब और कोई युक्ति नहीं है परन्तु तुम्हारे जैसा शिष्य भी मिलना असम्भव है । तुम सच्चे शिष्य हो और ब्राह्मण भी । ब्राह्मण होने के कारण मैं तुम्हें वह संजीवनी विद्या देता हूँ । इसके पश्चात तू मेरा उदर चीरकर बाहर निकल आना और मुझे बाहर आकर जीवित कर देना ।”

तत्पश्चात कच ने संजीवनी विद्या प्राप्त कर ली और शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर बाहर निकल गया और गुरु शुक्राचार्य को उसी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया । 

शुक्राचार्य ने तभी से मदिरा को ब्राह्मणों के लिए वर्जित होने का शाप दिया था ।

* आज से इस संसार का कोई भी अल्पबुद्धि ब्राह्मण यदि अज्ञानता से भी सुरापान करे तो वह धर्म से भ्रष्ट होकर ब्रह्महत्या के पाप का भागी बने और इह और परलोक में निन्दित हो ।

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*यो ब्राह्मणोऽद्य प्रभृतीह कश्चिन्मोहात् सुरां पास्यति मंद्बुद्धिः ।

अपेतधर्माब्रह्महा चैव सस्याद अस्मिन्ल्लोके गर्हितःस्यात् परे च ।।

(महाभारत/ वनपर्व १/ अध्याय ७६/ श्लोक संख्या ६७)

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कच का अभीष्ट पूरा हुआ था । देवताओं की कामना संजीवनी विद्या थी जो कच ने प्राप्त कर ली थी ।

अब वापस जाने का समय आ गया था । अपने गुरु के समीप रहकर कच ने हजार वर्षो का ब्रह्मचर्य का अपना कहा हुआ वचन पूरा किया और पुनःदेवलोक जाने की अनुमति माँग ली ।

कच अपने गुरु शुक्राचार्य को प्रणाम करके चलने के लिए तैयार हो गये । शुक्राचार्य ने भी उन्हें आशीर्वाद दिया और जाने की आज्ञा भी ।

देवयानी कच के सम्मुख आ खड़ी हुई और बोली--

" आप अपना अभीष्ट तो पा चुके हैं, अब मेरा क्या ? इतने दिनों तक साथ रहने के कारण मुझे आपसे प्रेम हो गया है और सम्भवतया आप भी मुझे पसंद करते हैं, इसी प्रेम के वशीभूत होकर दानवों द्वारा जब बार-बार आपको मार डाला गया, तब-तब मैंने अपने पिता को कहा कि आप को जीवित करें । मेरा यह व्यवहार आपके प्रति मेरा अगाध प्रेम दर्शाता है । अतः आप वैदिक मंत्रोच्चार सहित मुझसे विवाह करें ।”

कच ने बहुत ही विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया--

" गुरु शुक्राचार्य मुझे पूजनीय हैं, उसी प्रकार तुम भी मेरे लिए परम पूज्य हो । गुरुपुत्री होने के कारण तुम मेरी बहन के समान हो । मैंने सदैव तुम्हें बहन की तरह ही देखा है और मैं भी तो गुरुदेव के उदर में रह चुका हूँ, इस नाते तुम वैसे भी मेरी सगी बहन बन चुकी हो, अतः इस प्रकार की अप्रिय बातें मुझसे न करो ।"

देवयानी तो काम के वशीभूत थी, सो क्रोध में भर गयी । बार-बार प्रणय निवेदन करने पर भी जब कच ने उसके साथ विवाह आमन्त्रण को ठुकरा दिया तो देवयानी ने उसे शाप दे दिया--

“ आपकी यह संजीवनी विद्या कभी सिद्ध नहीं होगी ।”

कच को लगा, वर्षों का परिश्रम व्यर्थ ही गया । उसे भी क्रोध आ गया । उसने कहा--

" अपनी कामना के वश में आकर तुमने मुझे अकारण ही शाप दिया है अतः मैं भी तुम्हें शाप देता हूँ— 

“ मैं तो क्या कोई भी ब्राह्मणपुत्र कभी भी तुमसे विवाह न करेगा, मुझे तुम्हारे शाप के फलस्वरुप संजीवनी विद्या सफल तो नहीं होगी परन्तु मैं जिसे यह विद्या सिखा दूँगा उसे यह अवश्य सफल हो जाएगी ।"

इतना कह कर कच वापस देवलोक को प्रस्थान कर गया ।

******

उस उपवन में आज मानो आनन्द ने अपना डेरा डाल दिया था । वहाँ स्थित सरोवर से सुनयनी कन्याओं की किलकारियाँ सुनायी पड़ रही थी । वन में आज ऋषि पुत्री देवयानी और राक्षसराज वृषपर्वा की पुत्री राजकुमारी शर्मिष्ठा सहित बहुत सी कन्या जलक्रीड़ा में तल्लीन थी । तेज वायु से उनके वस्त्र आपस में मिल गये थे ।

एक प्रहर तक क्रीड़ा के पश्चात जल से निकलकर शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए । जिस कारण दोनों में भारी विवाद आरम्भ हो गया ।

देवयानी ने कहा--

" तुम्हारी मति मारी गयी है क्या ? तुम ठहरी दानव की पुत्री ! मुझ ब्राह्मणी के वस्त्र तुझे कदापि न पहनने चाहिए थे, क्या तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती ?"

शर्मिष्ठा राजा की पुत्री थी, उसे भी क्रोध आ गया । बोली--

“ अरी मूर्खा ! मेरे पिता राजा हैं, जब वह बैठे रहते हैं तो तेरे पिता नीचे खड़े होकर प्रतिदिन उनकी स्तुति करते हैं । वही उनको धन-धान्य देते हैं जिससे तुम्हारा और तुम्हारे पिता का पालन हो रहा है । जिस वस्त्र की तू बात कर रही है वह भी मेरे पिता ने तुझे दिया हुआ है ।”

देवयानी ने शर्मिष्ठा के शरीर से अपने वस्त्र उतारने और खींचने का प्रयत्न किया, इस छीना- झपटी में शर्मिष्ठा ने देवयानी को पास ही के एक कुएँ में धक्का दे दिया और किसी बिना कुछ बताए अपने राजमहल को लौट गयी ।

महान गुरु शुक्राचार्य की एकमात्र लाड़ली कन्या उस सूखे कुएँ में गिरकर घायल हुई थी। उसके तन पर चोट लगी थी उससे वह व्यथित न थी परंतु मन पर जो घाव लगे थे...वह अधिक पीड़ादायक थे।

देवयानी क्रोध और शोक में भर कर अश्रु बहाते हुए उस कुएँ में पड़ी थी । उसी समय किसी पशु के शिकार के लिए वन में आए हुए नहुष पुत्र राजा ययाति उस स्थान पर पहुँचे, देवयानी सहायता के लिए निरन्तर उस कुएँ से पुकार लगा रही थी । ययाति कूप के पास आए तो उन्होंने देवयानी को उस कुएँ में गिरे हुए देखा और हाथ पकड़कर बाहर निकाला ।

देवयानी ने बाहर आकर अपना परिचय दिया और कहा-

“ मैं महान दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री हूँ । तुमने मेरा हाथ थामा है अतः आज से मैं तुम्हारा पति रूप में वरण करती हूँ । मैं शीघ्र ही पिता की अनुमति प्राप्त करूँगी तब आप मुझसे विधिवत विवाह करें ।”

उसके पश्चात देवयानी क्षुब्ध अवस्था में पिता के पास पहुँची और शर्मिष्ठा से हुये अपमान की सारी बात पिता शुक्राचार्य को बताई ।

शुक्राचार्य ने कहा--

" पुत्री ! तू पवित्र ब्राह्मण की पुत्री है, मैं किसी की स्तुति नहीं करता परन्तु वृषपर्वा और स्वयं इन्द्र भी मुझे प्रणाम करते हैं । अपने क्रोध को छोड़ दो, क्योंकि यदि कोई व्यक्ति सौ वर्ष तक निरन्तर व्रत और यज्ञ करता है और दूसरा मनुष्य किसी पर क्रोध नहीं करता तो दोनों में क्रोध न करने वाला अधिक श्रेष्ठ होता है ।"

इस प्रकार शुक्राचार्य ने देवयानी को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु देवयानी का हृदय शर्मिष्ठा के कटु वचनों से बुरी तरह बिध गया था, अतः कोई बात उसे समझ न आ रही थी ।

‘क्रोध ऐसी पीड़ा है जिसमे मनुष्य का मुख तो खुला होता है पर आँखें और कर्ण बन्द हो जाते हैं ।’

शुक्राचार्य अपनी पुत्री से अगाध स्नेह करते थे । देवयानी को क्रोधित व दुखी देख वह भी क्रोधित हो गये और होकर वृषपर्वा के पास गये, और बोले--

“ राजा ! पाप करने वाले को कई बार तुरन्त ही उसका फल नहीं मिलता, परन्तु उसका फल प्राप्त अवश्य ही होता है । तूने पहले अपने दानवों द्वारा ब्राह्मण कुमार कच का बार-बार वध कराया और अब मेरी पुत्री का वध करने के लिए उसे अपनी पुत्री द्वारा कूप में धक्का दिलवा दिया । मैं तुम्हारे नगर में अब एक पल भी न रह सकूँगा ।”

राजा वृषपर्वा ने बार-बार गुरु से क्षमा दान देने का अनुरोध किया और कहा-

“ मैंने यदि शर्मिष्ठा के द्वारा देवयानी को अपमानित करने की चेष्टा भी की है तो भीषण अग्नि मुझे जला दे । इस भूमि पर मेरा जो कुछ भी है वह सब आपका ही है और मेरे भी स्वामी आप ही हैं ।”

शुक्राचार्य ने कहा--

" यदि राजन आप देवयानी को प्रसन्न कर सके तो ही मैं आपके नगर में रुक सकता हूँ अन्यथा मैं इस नगर को अभी छोड़ दूँगा ।"

वृषपर्वा ने देवयानी के पास जाकर बड़ी ही विनम्रता से प्रार्थना और क्षमा याचना की ।

देवयानी ने कहा— “ मैं चाहती हूँ कि शर्मिष्ठा मेरी दासी बन जाए और एक सहस्त्र कन्याओं सहित मेरे साथ रहे और दासी बनी रहे ।”

राक्षसराज वृषपर्वा नहीं चाहते थे कि उनके महान गुरु उनका राज्य छोड़ कर या उनसे रुष्ट होकर वहाँ से जाएँ, अतः उसने शर्मिष्ठा को सहस्र कन्याओं सहित बुला भेजा और शर्मिष्ठा ने पिता के आदेश और सम्पूर्ण दानव जाति के सुख के लिए देवयानी की दासता स्वीकार कर ली ।

तदन्तर ब्राह्मण महर्षि गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा और आशीर्वाद के फलस्वरुप राजा ययाति का विवाह देवयानी से हुआ और विवाह के पश्चात राजा ययाति अपने साथ देवयानी और दासी के रूप में शर्मिष्ठा को हजार कन्याओं समेत अपनी राजधानी ले गये ।देवयानी से विवाह करके महाराज ययाति अत्यन्त प्रसन्न थे उन्होंने वर्षों तक देवयानी के साथ सुख भोगा ।

शर्मिष्ठा के लिए भी उन्होंने अत्यन्त रमणीय और मनोरम  वाटिका में सुन्दर भवन  बनवा कर रहने आदि की व्यवस्था की थी ।

*****


वसंत का समय था । 

एक दिन शर्मिष्ठा ने अपने ऋतुकाल की स्थिति में तथा एकान्त पाकर ययाति को अपने सौन्दर्य के वशीभूत कर लिया और अपने साथ समागम करने के लिए तैयार कर लिया । राजा ययाति ने धर्म अनुसरण करके उसे उचित रीति से पत्नी का स्थान दिया ।

कालांतर में शर्मिष्ठा ने देवताओं की तरह सुन्दर बालक को जन्म दिया । वह बालक बड़ा होने लगा ।

एक बार देवयानी ने उस सुन्दर बालक को देखकर उससे पिता का नाम पूछा— “ अरे पुत्र ! तू तो कितना सुन्दर है, कौन हैं तुम्हारे पिता ?”

उस कैशोर्य बालक ने राजा ययाति की ओर इशारा कर दिया  । इससे देवयानी को सत्य का पता चल गया ।

वह शर्मिष्ठा पर अत्यन्त क्रुद्ध हुई ।

“ दुष्टा ! तूने सदा ही मेरे साथ छल किया है ।”

शर्मिष्ठा ने कहा- “ सखी का स्वामी ही तो सखी की सभी दासियों का भी स्वामी होता है, अतः राजा ययाति मेरे भी धर्मपति हैं इसमें कुछ भी गलत नहीं है ।”

देवयानी अत्यन्त दुखी हुई । उसे लगा था शर्मिष्ठा ने दासी होकर उसके साथ विश्वासघात किया और स्वयं उसके पति भी इस पापकर्म में तत्पर हुए । 

वह राजा ययाति को क्षमा न कर सकी और सब कुछ छोड़कर अपने पिता के पास चली गयी ।

राजा ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु वह न रुकी और पिता शुक्राचार्य के समीप जाकर सब कहानी सुना दी ।

क्रोध में भरकर शुक्राचार्य ने राजा को शाप दे दिया कि जिस यौवन के अधीन तुमने यह अपराधपूर्ण कार्य किया है वह यौवनावस्था अब न रहेगी और तुम तत्काल ही वृद्धावस्था को प्राप्त करोगे ।

भला यौवन सदा किसके साथ रहता है ? शाप के कारण राजा ययाति ने डरावनी वृद्धावस्था प्राप्त कर ली । ययाति अपनी यह अवस्था देखकर बहुत दुखी थे, वह तो चिरयुवा रहना चाहते थे । उसने शुक्राचार्य से कहा-

“ भगवन ! असुरराज की वह पुत्री मुझसे ऋतुदान माँग रही थी तथा समस्त शास्त्र और धर्मसम्मत जानकर ही मैंने यह कार्य किया था, कामवश नहीं । वैसे भी मैंने राज्य में घोषणा कर रखी है कि कोई भी मनुष्य मुझसे कुछ भी माँगेगा, मैं उसे अवश्य दूँगा । आप ने ही शर्मिष्ठा को अपनी पुत्री के साथ मुझे सौंपा था । शर्मिष्ठा मेरे अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का वरण करने को तैयार ही नहीं थी, अतः मैंने उसकी इच्छापूर्ति की । यह मैंने किस प्रकार से अधर्म किया कृपया आप ही मुझे समझाइए ।”

शुक्राचार्य का क्रोध काँपते हुए वृद्ध व जर्जर ययाति को देखकर मन्द पड़ गया था उन्होंने कहा—

“ राजन ! मेरा शाप तो असत्य नहीं हो सकता परन्तु इतना अवश्य कहता हूँ कि यदि चाहो तो सहस्र वर्ष तक किसी दूसरे से युवावस्था लेकर अपने इच्छापूर्ति कर सकते हो और वृद्धावस्था को उसकी देह में डाल सकते हो । तुम्हारे तो सभी पुत्र युवा हैं, अपने किसी भी पुत्र से उसकी युवावस्था प्राप्त करो और यौवन के सुख का भोग करो ।”

ययाति दुखी मन से नगर में लौट आए । देवयानी से उनके दो पुत्र थे, यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से तीन- दुह्यु, अनु और पुरु ।

नगर पहुँचते ही उन्होंने पुनः यौवन प्राप्ति की इच्छा की तथा अपने पुत्रों को बुलाया और बोले-

“ मेरे प्रिय पुत्रों ! मुनिवर शुक्राचार्य के शाप से मैं असमय ही वृद्ध हो गया हूँ । मेरे सम्पूर्ण शरीर में झुर्रियां पड़ गयी हैं शरीर शिथिल हो गया है तथा बाल श्वेत हो गये हैं, किंतु यौवनावस्था से मुझे अभी तृप्ति नहीं मिल सकी है । यदि तुम लोगों में से कोई भी मुझे अपनी युवावस्था देकर मेरा बुढापा ले-ले तो मैं हजार वर्ष के बाद पुनः तुम्हें यौवन वापस कर दूँगा और अपनी वृद्धावस्था वापस ले लूँगा ।”

“ यदु ! क्या तुम...?” यदु ने मुँह फेर लिया ।

क्रमशः

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