आशा... a positive hope
आशा...उम्मीद...hope
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यह तब की बात है...
जब मनुष्य और देवता... सेवक और भगवान की तरह आपस में एक-दूसरे से मिलते रहते थे।
यह बात अलग है कि यह कहानी पूरी तरह कपोल कल्पित है।
तब कुछ ऐसा होता था कि मनुष्य प्रतिदिन देवता के द्वार पर जाता, सेवा करता, भोग लगाता, चरण दबाता।
बदले में देवता बताते-
"मैंने तुम्हें दिया जल पीने के लिए,
मैंने ही दी यह मधुर सुगंधित वायु,
यह जीवनदायिनी श्वास..।
ये स्वादिष्ट और मधुर फल भोजन के लिए मैंने ही दिए हैं, और वनस्पतियाँ और पुष्ट करने वाला अन्न भी तो।"
मनुष्य लजाता, शरमाता अपनी दीनता पर...और बारम्बार कृतज्ञता प्रकट करता।
...फिर एक दिन भयभीत होते, डरते मनुष्य ने देवता को अपने घर...अपनी झोपड़ी में आने का आमंत्रण दिया।
" स्वामी! स्वामी! आप तो परम् कृपालु हैं, आपने कितना कुछ दिया है मुझ सेवक को..।
मैं कभी कुछ भी तो दे न सका आपको।
कल आप मेरे घर आएँ,
मैं कुछ रूखा सूखा भोजन बनाऊँ, आप मेरे साथ ही खाना खाएँ।
सेवा करूँ कुछ आप की...जीम कर जाएँ मेरी कुटिया पर तो कृतार्थ हो सकूँ।
आपके उपकार का कुछ तो बदला चुका सकूँ।"
...तो सजे-धजे देवता ने हँस कर कृपा की...कहा- "तथास्तु"
आए अगले ही दिन उसके घर...।
उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी पर।
उस मनुष्य ने..उन्हीं के दिए जल से उनके चरण पखारे।
'तेरा तुझको अर्पण।'
पास पड़ी चट्टान पर फूस और पत्ते बिछाकर उन्हें बैठा दिया सम्मान से...।
...और फिर केले के पत्तों पर अन्न के दाने, ताजे रसीले फल और वनस्पतियाँ, कन्द-मूल ले आया।
"भोजन करें मेरे स्वामी!"
भोजन किया देवता ने...पर स्वाद कुछ आया नहीं।
कच्चे अन्न, फल, तरकारी को देख देवता को भी मनुष्य पर तरस आया आ गया होगा।
तब चलते-चलते प्रसन्न होकर उसने वरदान दिया।
यह मनुष्य को मिला सबसे बड़ा उपहार था। देवता ने उसे दी थी 'अग्नि'।
कहा था- " जब भी मुझे भोजन कराने की इच्छा हो, इस अग्नि को प्रज्ज्वलित करो, यज्ञ करो और पका हुआ अन्न हविष्य के रूप में मुझे अर्पण करो।
मैं प्रसन्न होऊँगा, और मैं प्रसन्न तो तुम भी...।"
ऐसा ही हुआ।
परन्तु अग्नि प्राप्त होने के साथ ही मनुष्य बड़ा शक्तिशाली हो गया।
...और उसका भय कम हो गया।
उसका भोजन अब पकने लगा था।
भोजन में स्वाद आ गया और घर में गर्मी। जंगली जानवरों से रक्षा होने लगी।
जब मनुष्य मजबूत हो गया तो उसने देवताओं की सेवा करनी बंद कर दी।
जन्मजात स्वार्थी मनुष्य...।
प्रार्थना, पूजा, पैर दबाना, भोग लगाना सब बन्द करता गया।
देवता बहुत नाराज हो गए।
अपने आदर-सत्कार में कमी किसको अच्छी लगती है?
उनका एकाधिकार...सारी व्यवस्था जो टूटने लगी थी।
अब तो आदमी न डरे.. न काँपे।
सर्दियों से काँपने वाला मनुष्य अब अपने स्वामी से भी भयभीत न होता था।
उसके पास 'अपनी शक्ति' हो गई बचाने के लिए।
'जिसके हाथ मे डंडा, वही थानेदार।'
जरा सोचें, आदमी आग के बिना कैसा रहा होगा।
बड़ा ही भयभीत।
सिवाय भय के और कुछ भी नहीं।
रात को सो नहीं सकता था क्योंकि जंगली जानवरों का भय।
सुबह तो होगी..पर वह जीवित होगा क्या?
रात भयंकर अंधकार में गुजरती।
तब रात बड़ी भयंकर थी। राच्छस की भाँति डराती होगी, नहीं...?
करोड़ों साल बिना आग के ही बिताए थे मनुष्य ने।
...पर अब अग्नि ने जीवन ही बदल दिया था।
अग्नि सबसे बड़ी शक्ति है, इस जीवन की सबसे बड़ी खोज।
उसके बाद अभी तक भी अग्नि से बड़ी खोज नहीं हो पाई।
पहिया और परमाणु बम भी उतनी बड़ी खोज नहीं है।
...किन्तु देवता बड़े क्रुद्ध थे मनुष्य पर।
स्वामी को सदा अधिकार है जी सेवक पर रुष्ट होने का।
इसलिए हर स्वामी सदा ही सेवक को दबाकर रखता है। कहीं सेवक ने शक्ति प्राप्त की तो फिर स्वामी कैसा?
आज विश्व के करीब साढ़े सात अरब लोगों में गिनती के कुछ हजार के पास पृथ्वी के सम्पूर्ण ऐश्वर्य का अधिकार है।
वे स्वामी...बाकी सब सेवक।
...तो देवताओं ने मनुष्य को कष्ट देने का निर्णय किया।
उसे कष्ट देने के लिए, उसे पीड़ा में डालने के लिए रच दिया एक चक्रव्यूह।
उन्होंने एक स्त्री की उत्पत्ति की।
बड़ा ही सुंदर उसको रचा।
सौंदर्य के देवता ने उसको अप्रतिम सुंदरता दी, बुद्धि के देवता ने उसे मेधा।
नृत्य के देवता ने उसके पैरों में नृत्य की बिजली भर दी और संगीत के देवता ने उसके कंठ को मधुर संगीत से विभूषित किया।
ऐसे सारे देवताओं ने मिलकर बनाई 'स्त्री'।
स्त्री जैसा सुंदर कोई न था।
कोई हो भी न सकता था।
सब देवताओं की सम्मिलित सृजन शक्ति उस पर लग गई।
मनुष्य अब उनका परम शत्रु था।
...और शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए एक होना ही पड़ता है, अपने क्षुद्र स्वार्थों को छोड़ना ही पड़ता है।
आपस मे तो खैर बाद में निपट लेंगे।
...और उस अनुपम रचना को उन्होंने पृथ्वी पर भेज दिया।
धरती पर स्त्री आई तो मनुष्य ने देखा उसे। सबकुछ भूल गया।
इतनी सुंदरता कभी देखी न थी उसने।
बस आदमी तब से स्त्री के किए ही जीने लगा। उसकी प्रसन्नता..उसकी मुस्कान के लिए।
दोनों साथ रहते। सृष्टि भी मुस्कुराने लगी थी। बढ़ने लगी थी।
देवताओं ने पृथ्वी पर भेजने के पहले उस स्त्री को दी थी एक टोकरी।
...और कहा, बस एक बात का ध्यान हमेशा रखना कि इसे खोलना मत।
इस टोकरी को कभी भूलकर भी मत खोलना।
देवता चाहते थे, कि वह खोले, इसलिए उन्होंने कहा कि इसको खोलना मत, चाहे कुछ भी हो जाये।
स्वभावतः देवता तो ठहरे देवता।
अति चतुर!
वे सब जानते थे मनुष्य का मस्तिष्क ही बस ऐसा है।
जो काम कराना हो बस कह दिया जाय कि यह नहीं करना है।
उसके लिए यह जिज्ञासा भर देनी, कि मत करो। बस फिर वह करेगा जरूर, जितना मना करो, उतना करेगा।
जब तक नहीं करेगा, कुलबुलाता रहेगा।
वही हुआ...अगर वे कुछ भी न कहते तो शायद वह स्त्री भूल जाती उस टोकरी को।
...पर उस दिन से उसको दिन रात एक ही लगा रहता मन में, कि उस टोकरी में क्या है?
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क्या है उसमें??
बड़ी सुंदर सी वह टोकरी हीरे-ज़वाहरातों से जड़ी थी।
आखिर एक दिन उससे न रहा गया।
उसे नींद न आती थी।
...और एक दिन आधी रात में उठकर सोचा
'वह टोकरी खोलकर देख ही लिया जाय। किसी को क्या पता चलेगा।'
...पर उस टोकरी को खोलते ही वह घबड़ा गई।
उसमें से निकले भयंकर राक्षस; अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह, काम, भय, र्ईष्या, जलन और डाह।
जैसे ही खुल गई थी टोकरी और उसमें से निकले थे ये सारे भूत-प्रेत और तब से सारी पृथ्वी पर फैल गए।
घबड़ाहट में उसने तुरंत ही बंद कर दी वह टोकरी...लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
सब के सब निकल चुके थे, जो-जो उसमें थे।
सिर्फ रह गई थी बाकी उसमें- आशा।
बाकी सब निकल गए, फिर वह टोकरी बंद हो गई।
सिर्फ आशा...उम्मीद...होप...भीतर रह गई।
बस तब से ही लोभ, काम, क्रोध सब हमें बाहर से सताते हैं।
आशा हमें भीतर से समझाती है।
दिलासा देकर...
आशा यानी...कल्पना!
बस सपना!
यह आशा ही भरोसा देती है कि सब ठीक हो जायगा।
पता नही होगा या नहीं होगा पर उम्मीद में आदमी...वह मनुष्य जी रहा है।
उस 'आशा' के... 'उम्मीद' के कारण हम भी मानने लगते हैं कि ऐसा ही होगा।
वह आशा...अब भी टोकरी के भीतर बंद है। फिर उसे कभी खोला न गया।
उस आशा के बल पर ही हम सब जीवित हैं। बस, एक उम्मीद के सहारे सारा जीवन निकाल देते हैं हम सब।
वही तो है जो हमें जिलाये हुए है। उम्मीद है तो हम हैं।
...और उम्मीद बस यही, कि सब ठीक ही होगा।😊
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