तितली और पत्ता

तितली को उड़ते देखा स्वच्छंद
पत्ते को आया नहीं पसंद
अतिशय व्यथा में उसने
तितली को बुलाया
तितली आई..
उसने पत्ते को भड़काया
चूमा उसको
कानों में शंख बजाया
तुम !...कैसे तो जड़ हो ?
पिता..और माता
ये जड़ और शाखें
तुम सब कितने अक्खड़ हो,
उड़ नही सकते,
चल नही पाते
पड़े-पड़े यहीं जीवन भर
क्या किंचित नहीं अघाते ?
पत्ते ने कहा
तुम ही हो सच्ची मित्र
बस और नहीं सहूँगा
मुक्ति मिले, उन्मुक्त उड़ूँगा ।
अपनी माँ..शाखों से उसने
उँगलियाँ छुड़ा लीं
टहनियाँ रोईं ,
उसने नजरें झुका लीं।
हवा उड़ा ले चली उसे
उड़ता था अब तितली जैसे
वो फूला नहीं समाता था,
प्रसन्न होता मदमस्त
वह मंद-मंद मुस्काता था,
बस मन ही मन इतराता था
जग जीत लिया वह पाता था
इच्छा जो जीवन-रस भरती
हृद-मन को उल्लासित करती
पर ये क्या था, क्यों कर था ये ?
क्या जीवन कुल इतना सा था ?
यूँ हवा रुकी वह थका-रुका
औ गिरा धूल-धूसरित होकर
घबराया..पछताया सिर धुन
पर अब क्या था..?
सब खत्म हुआ,
वह मुड़ा अश्रु भर देखा भर,
सब कुछ खोया जब खोया घर ।
पददलित हुआ अब कुछ न रहा,
अपनों को छोड़ा, सुख न रहा ।
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