मेरी खोज...मेरा डर

मेरी खोज...मेरा डर
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बच्चा था जब
माँ ने कहा
प्रणाम करो भगवान को
पिता ने सिखाया
ईश्वर का स्मरण करो
गुरु ने समझाया
भगवान बड़ा कारसाज है
जीवन वही देता है
वही लेता प्राण भी
जल थल नभ सब उसकी माया
कर्ता वही, धर्ता वही
मिल गया था अभीष्ट
सर्वस्व था अब इष्ट
कुछ और नहीं अब तो
मुझे ईश्वर चाहिए था
मैं खोजने लगा
ईश्वर को खोजने लगा
शिवालयों मंदिरों में
तीर्थो पहाड़ों में
साधुओं नागाओं में
और मठों में भी तो..
बहुत भटका
फिरता रहा
मारा मारा
जप किया
फिर तप किया
सुखा ली देह सारी
व्यर्थ हुआ, बीत गया
वृद्ध हुआ रीत गया
फिर ...
कई बार जन्म लिया
ढूँढता रहा..
खोजता रहा
दूर हर पथ पर..
देखा उसे कई बार
मैं भागता.. भागता..
उसकी तरफ
पर मेरा ईश्वर
तब तक निकल चुका होता...
और दूर...
मेरी तो सीमा थी ..
पर..
उस असीम की, उस सत्य की क्या सीमा
जन्मों- जन्म भटकता रहा मैं..
कभी मिलता स्वप्न में
भ्रम में कभी
किसी तारे के पास
जब मैं पहुँचता उस तारे तक...
तब तक
वह कहीं और ही निकल चुका होता
आखिर बहुत थका..बहुत परेशान..
और बहुत प्यासा..
एक दिन ..
खोजते ढूँढ़ते
मैं उसके द्वार पर पहुँच ही गया।
मैं उसकी सीढियाँ चढ़ गया।
ईश के भवन की सीढ़ियाँ मैंने पार की
उसके द्वार पर खड़ा हो गया..
कार्य हुआ था सिद्ध
पूरा हुआ अभीष्ट
सांकल मैंने हाथ में ले ली
बजाने को ही था
तभी...
मुझे लगा..
मैंने सोचा
अगर वह मिल ही गया तो ?
मैं क्या करूँगा ?
अब तक एक बहाना था
चलाने का..मन को
कि..
ईश्वर को ढूँढता हूँ..
फिर तो बहाना भी नहीं रहेगा
अपने समय को काटने का एक बहाना
अपने को व्यर्थ न मानने का...
सार्थक बनाए रखने की एक कल्पना थी।
द्वार पर खड़े होकर घबराया..
कि द्वार खडकाऊं कि न खडकाऊं।
क्योंकि खटकाने के बाद उसका मिलना तय है।
आखिर भवन है उसका
वह मिल जाएगा..
फिर..
मैं उससे मिलना भी चाहता हूँ ?
या फिर एक बहाना था केवल
अपने आपको चलाये रखने का..
क्या सच्ची प्यास है
है क्या उत्कंठा
मिलने की... उससे ?
और तब.. मन बहुत घबराया
और सोचा...
नहीं...
दरवाजा मत खटखटाओ
यदि वह मिल ही गया..
सामने आ ही गया
फिर क्या करोगे?
फिर सब करना गया।
फिर सब खोजना गया।
फिर सब दौड़ भी गई।
फिर तो आई मृत्यु..
सारा जीवन ही गया।
तब मैं डर गया...
सचमुच डर गया..
मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी
कि कहीं वह सुन ही न ले।
और मैं भागा
उलटे मुख
दबे पाँव
चोरों की तरह
उसके द्वार से...
मैं भागता गया, भागता गया...
जब मैं बहुत दूर निकल आया...
तब...
ठहरा... रुका..
चैन की सांस ली।
और तब से..
मैं फिर उसका मकान..
उसका पता..
ढूंढ रहा हूँ।
क्योंकि ढूँढने में
जीवन चलाने का एक बहाना है
मुझे भली-भांति पता है कि..
उसका मकान कहाँ है।
पर मैं बच के निकल जाता हूँ
खोज जारी है...
जो भी मिलता है,
पूछता हूँ, वह कहाँ मिलेगा ?
ऐसे जिन्दगी मजे में चल रही है।
मकान उसका मुझे पता है।
बड़ी अजीब सी बात है।
पर हम सबके साथ ऐसा ही है,
हम सबको पता है..
उसका मकान कहाँ है
हमें मालूम है
कि बस थोडा खटकाएँ
और...द्वार खुल जाएँगे…
बस तैयार होने की बात है।
पर क्या हैं तैयार?
.. आप...
हम...
एक ही डर लगता है बस
कि कहीं..
किसी दिन उससे मिलना न हो जाय।
🙏

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