कल आना: एक कहानी आज की


आज दफ्तर में मीटिंग के दौरान एक छोटी सी घटना घटी। चूँकि मैं रेल वैगन कारखाने में कार्य करता हूँ तो प्रतिदिन सुबह ही कार्य की रूपरेखा बना ली जाती है। मेरे एक इंजीनियर साथी से जब प्रोडक्शन इंजीनियर ने पूछा कि "आप दो दिन से रोज कहते हैं कि कल यह वैगन कम्पलीट हो जाएगा और आज फिर वही कह रहे हैं कि कल हो जाएगा, आखिर कब आएगा आपका कल"?
..तो मुझे अपने बचपन मे पढ़ी 'धर्मयुग' की एक कहानी याद आ गई। मुझे याद है कि उन दिनों धर्मयुग का आकार व साइज अखबार जितना होता था।
हाँ! तो मैं बात कर रहा था उस कहानी की..
कुछ इस प्रकार थी वो...
एक बुढ़िया थी। सच में अत्यंत बूढ़ी, पर अत्यंत चतुर और हँसमुख।
कमर झुककर उसकी दोहरी सी हो गई थी।अवस्था भी सौ साल के आसपास ही रही होगी। सर से पाँव तक पूरे शरीर में झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ, पर बेजान आँखों में जीवन की चमक अभी भी विद्यमान थी।
छोटी सी टूटी-फूटी झोपड़ी में अपने दिन गुजार रही थी। दिन भर लकड़ियाँ बीनती। आसपास के घरों में भी पहुँचा देती। लोगों का छोटा-मोटा काम कर देती, बदले में लोग मुट्ठी भर अन्न दे देते या कभी बची हुई रोटियाँ। उसका काम चल जाता था। आसपास के छोटे बच्चे उससे बहुत प्रसन्न रहते थे, उन बच्चों को कहानियाँ जो सुनने को मिलती थीं।
न कभी किसी ने न पूछा और न उसने कभी बताया किसी को भी अपने परिवार के बारे में।
पर, हमेशा, किसी भी हाल में प्रसन्नता कभी उसके मुख से जाती न थी।
बेरहम दिन को भी हँसी खुशी काटने का हुनर उसे आता था।
पर एक दिन...
यमराज के खाते में उसके दिन पूरे हो गए।
चला-चली की बेला आई।
यमराज पहुँचे दरवाजे पर।
झोपड़ी के बाहर पहुंच कर चिटकनी बजाई।
चलो माई! दिन पूरे हो गए।
बुढ़िया चतुर तो थी ही।
बोली--
आज बहुत काम है, कल आना..
नहीं-नहीं। समय खत्म हुआ, अब तो चलना पड़ेगा। यमराज बोले।
मैं विष्णु भगवान की पूजा कर रहीं हूँ, कह दिया न कल आना।
यमराज थोड़ा सकपकाए। विष्णु भगवान का अपमान न हो जाय।  वैष्णवों से वैसे ही डरते थे। जब से अजामिल वाला किस्सा हुआ, डरने लगे थे विष्णुभक्तों से।
थोड़ी देर तक सोचते रहे, क्या कहूँ, क्या कहूँ?
अच्छा ठीक है, पर किसी भी हाल में कल जरूर चलना पड़ेगा।
हाँ-हाँ ठीक। कल जरूर चलूँगी।
बुढ़िया ने अंदर से ही उत्तर दिया।
यमराज अब भी संशय में थे।
पूछा- "पक्का वादा रहा न?'
हाँ भई! क्या लिख कर दूँ? बुढ़िया हँसी।
कहने लगी--अच्छा एक काम करो!
तुम स्वयं ही दरवाजे पर मेरी तरफ से अपने हाथ से लिख दो।
'कल आना।'
और देखो अब तुम ही लिख रहे हो तो अब कल तक तंग न करना।
यमराज ने झोपड़ी के टूटे दरवाजे पर लिख दिया--
'कल आना'
और चले गए यह सोचकर कि अब एक दिन और सबर कर लेते हैं, आखिर विष्णु भक्त है।
यमराज चले गए और फिर दूसरे दिन सुबह-सुबह ही पहुँच गए।
झोपड़ी के दरवाजे पर आकर फिर दरवाजा खटकाया।
ऐ माई! चलो अब। समय पूरा हुआ।
बुढ़िया चतुर थी। उसने तो कल ही पूरा खेल खेल लिया था।
बोली-- बड़े विचित्र हो यमराज जी। किसने तुमको इतने जरूरी काम का अधिकारी बना दिया।
तुम तो पहले भी आए थे,  मैंने पहले ही कहा था कल तक परेशान न करना।
तब अपनी कुछ बात हुई थी कि नहीं?
कुछ समझौता तूने ही किया था।
तुम अपने ही हाथों दरवाजे पर मेरी तरफ से कुछ लिख कर गए थे।
उसे पढ़ो जरा!
यमराज चकराए, हाँ, उनके ही हाथों दरवाजे पर लिखा था 'कल आना'
बहुत सारे कामों के बीच शायद कुछ गलती मुझसे ही हुई है।
अपनी गलती की क्षमा माँग बुढ़िया से लौट गए।
फिर कई बार लेने आए और स्वयं का लिखा 'कल आना'  देख हर बार बुढ़िया से डाँट खाते और लौट जाते।
कहते हैं कि वे आज तक उस चतुर बुढ़िया को न ले जा पाए।
बुढ़िया आज भी उन छोटे बच्चों के नाती-पोतों को सुंदर कहानियाँ सुनाया करती है।😊🤔😄

यह कहानी pratilipi.com पर भी पढ़ी जा सकती है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सप्तश्लोकी दुर्गा Saptashlokee Durga

हरि अनंत हरि कथा अनंता। A Gateway to the God

नारायणहृदयस्तोत्रं Narayan hriday stotram