श्रीमद्भागवत प्रथम स्कन्ध द्वितीय अध्याय से चुने हुए कुछ मोती

यो लीलालास्यसंलग्नो गतोsलोलोsपि लोलताम्।
तं लीलावपुषं बालं वन्दे लीलार्थ सिद्धये।।
स्वपुरुषमपि वीक्ष्य पाशहस्तं वदति यम किल तस्य कर्णमूले।
परिहर भगवत्कथासु मत्तान प्रभुरहमन्यनृणा न वैष्णवानाम्।।
अपने दूत को पाश हाथ मे लिए देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं-
'देखो! जो भगवान की कथावार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवों को नहीं '।।

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरघोक्षसे।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाssत्मा संप्रसीदति।1/2/6
मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है जिससे भगवान श्री हरि में भक्ति हो।भक्ति भी ऐसी जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य निरन्तर बनी रहे। ऐसी भक्ति से हृदयः आनंदस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि कर कृतकृत्य हो जाता है।

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम्।।1/2/8
धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला और कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है।

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः।
जन्यत्याषु वैराग्यं ज्ञानं यत्तदहैतुकम् ।।1/2/7
भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है।

धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोंsर्थायोपकल्पते।
नार्थस्य धर्मेकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः।1/2/9
धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ- प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिए है। भोग-विलास उसका फल नहीं है।

कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता।
जीवस्य तत्व जिज्ञासा नार्थो यश्व्वेह कर्मभिः।1/2/10
भोग का फल इंद्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा अर्थात प्रभु को खोजने-पाने की जिज्ञासा है, बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल कदापि नहीं।

वदन्ति तत्तवविदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।1/2/11
तत्वज्ञानी लोग अखंड सच्चिदानंद ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म कोई परमात्मा और कोई भगवान कह के पुकारता है।

स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषितम्।1/2/13
मनुष्य के धर्म की सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हों।
तस्मादेकेन मनसा भगवान्सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूजयश्च नित्यदा।1/2/14
इसलिए एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य निरंतर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिए।

यदनुध्यसिना युक्ताः कर्म ग्रंथि निबंधनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात्कथारतिम्।1/2/15
कर्मों की गाँठ बहुत कड़ी है, विचारवान पुरुष भगवदचिन्तन की तलवार से उसे काट सकते हैं, तो भला कौन ऐसा मनुष्य होगा जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करे।

श्रवणतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः।1/2/17
भगवान श्रीकृष्ण के यश जा श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनिश्वरे।।1/2/21
हृदय में आत्मस्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रंथि टूट जाती है, सारे संदेह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है।

वसुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः।
वासुदेवपरा योगा वसुदेवपराः क्रियाः।।1/2/28
वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण ही है। यज्ञों का उद्देश्य श्रीकृष्ण ही है। योग श्रीकृष्ण के लिए किए जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है।
वासुदेवपरं ज्ञानं वसुदेवपरं तपः।
वसुदेवपरो धर्मो वसुदेवपरा गतिः।।1/2/29
ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है।तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं।


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