श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् 3/73

अस्ति स्वस्तरुणी कराग्र विगलत
यस्तु प्रस्तुत वेणुनाद लहरी निर्वाण

सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेsपि धन्या
नियसति हृदि येषा श्रीहरेर्भक्तिरेका
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय प्रविशति हृदि तेषा भक्तिसूत्रोपनद्ध।
जिनके हृदय में एकमात्र श्रीहरि की भक्ति निवास करती है, वे त्रिलोक में अत्यंत निर्धन होने पर भी परम धन्य हैं, क्योकि इस भक्ति की डोरी में बँधकर तो साक्षात भगवान भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदय में आकर बस जाते हैं।

सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्याः

निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका ।

हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय

प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः ।।


संसारसागरे मग्नः दीनं मा करुणानिधे।
कर्ममोह गृहीतांङ्ग मामुद्दर भवार्णवात।
हे करुणानिधान प्रभो! मैं संसार सागर में डूबा हुआ दीन व्यक्ति हूँ। कर्मों के मोह रूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है।अब आप ही इस संसार सागर से मेरा उद्धार कर सकते हैं।

श्रीमद्भागवताख्याsय प्रत्यक्ष कृष्ण एव हि।
स्वीकृतोsसि मया नाथ मुक्त्यर्थे भवसागरे।
श्रीमद्भागवत रूप में आप साक्षात श्रीकृष्ण ही विराजमान हैं, हे नाथ! मैंने भवसागर से छुटकारा पाने के लिए आपकी शरण ले ली है।

मनोरथो मदीयोsय सफल सर्वथा त्वया।
निर्विघ्ने नैव कर्तव्यो दासोsहं तव केशव।
मेरा मनोरथ आप बिना विघ्न बाधा के साङ्गोपाङ्ग पूरा करें। हे केशव! में तो आपका दास हूँ।

लोकवित्तधनागार पुत्र चिंता व्युदस्य च।
कथाचित्तं शुद्धमति स लभेत फलमुत्तमम्।।
जो पुरुष लोक, संपत्ति, धन, घर और पुत्रादि की चिंता छोड़कर शुद्धचित्त से केवल भगवत्कथा में ही ध्यान रखता है, उसे इस श्रवण का उत्तम फल मिलता है।

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