श्री हनुमान जन्मोत्सव विशेष
श्री हनुमान जन्मोत्सव विशेष
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प्रभु श्रीरामजी ने रावण का वध कर पृथ्वी को भार मुक्त कर दिया।
विभीषण और सुग्रीव अपना राज सँभालने में लग गए थे।
वानर अब भी अपने प्रभु राम को छोड़कर जाना चाहते नहीं थे, परन्तु प्रभु की आज्ञा से वे भी बुझे मन वापस लौटने लगे।
सौमित्र अपने हाथों से सभी को फल-फूलों के साथ विदा दे रहे थे।
विभीषण और सुग्रीव भी पुष्पक से अयोध्या तक श्री राम को पहुँचाने की अनुमति तो प्राप्त कर चुके थे, पर उन्हें फिर लौटना ही है।
इधर श्रीराम एक विशाल शिला पर बैठे समुद्र की उठती गिरती लहरों को निर्विकार निहार रहे हैं।
और...
हनुमानजी प्रभु के चरणों में बैठे हैं और अपने दोनों हाथों से बारी-बारी से चरणों को धोकर दुपट्टे से पोंछते और दबाने लगते हैं।
उनके नेत्र बन्द हैं...
मुख से मन्द स्वर में नामजप...
सीताराम! सीताराम! की ध्वनि निकल रही है...
जो किसी अन्य के कर्णो तक नही जाती।
बस हृदय में विराजमान प्रभु ही उसे सुन पा रहे हैं।
इस प्रकार हनुमंतलालजी देह और जीव दोनों से ही प्रभु सेवा का सुख पा रहे हैं...
ऐसा सुख जो जन्म-जन्मांतर की कड़ी तपस्या के पश्चात भी मुनियों को भी प्राप्त नहीं होता।
"जनम जनम मुनि जतन कराहीं।
अंत राम कहीं आवत नाहीं।"
बजरंगी के दोनों बन्द नेत्रों से भक्ति और प्रेम की अधिकता आँसू बह रहे हैं, अश्रुओं ने बह कर ज्यों ही श्री राम के चरणों को भिगोया..
प्रभु चौंके...
अपने चरण उन्होंने अपनी तरफ खींच लिए, हनुमान पर मानो वज्रपात हुआ...
उन्हें लगा जैसे जीव अब देह से अलग होने को ही है।
प्रभु के चरण उनसे विलग कैसे हो सकते हैं?
राम के मुख पर सदा की भाँति जगन्मोहिनी मुस्कान है...
पर एक प्रश्न भी-
'सुनो वत्स! तुम कौन हो?'
'कौन होs तुम?'
ये क्या? प्रभु ने मुझे विस्मृत ही कर दिया लगता है।
अब सम्भले हनुमत बीरा।
ब्रह्मसत्य, जगतमिथ्या ।
'अष्टसिद्धि नवनिधि' के स्वामी हनुमान जी संसार के समस्त जीवों की बुद्धि का प्रतीक हैं, सो तुरंत समझ गए कि प्रभु पूछ क्या रहे हैं।
बोले-
देह दृष्ट्या तु दासोsहं, जीव दृष्ट्या त्वदंशकः।
वस्तुतस्तु त्वमेवाहं, इति मेsनिश्चिता मतिः।।
प्रभु! इस शरीर के रूप में मैं आपका दास हूँ
तथा जीव के रूप में मैं आपका ही अंश हूँ।
परंतु प्रभु! मेरी मति कहती है कि आत्मा के रूप में वस्तुतः मैं वही हूँ जो स्वयं आप ही हैं।
प्रभु हँसे..उन्होंने प्रसन्न होकर हनुमानजी को सदा अपने साथ रहने का वरदान दिया और अपने कंठ से लगा लिया।
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प्रभु श्रीरामजी ने रावण का वध कर पृथ्वी को भार मुक्त कर दिया।
विभीषण और सुग्रीव अपना राज सँभालने में लग गए थे।
वानर अब भी अपने प्रभु राम को छोड़कर जाना चाहते नहीं थे, परन्तु प्रभु की आज्ञा से वे भी बुझे मन वापस लौटने लगे।
सौमित्र अपने हाथों से सभी को फल-फूलों के साथ विदा दे रहे थे।
विभीषण और सुग्रीव भी पुष्पक से अयोध्या तक श्री राम को पहुँचाने की अनुमति तो प्राप्त कर चुके थे, पर उन्हें फिर लौटना ही है।
इधर श्रीराम एक विशाल शिला पर बैठे समुद्र की उठती गिरती लहरों को निर्विकार निहार रहे हैं।
और...
हनुमानजी प्रभु के चरणों में बैठे हैं और अपने दोनों हाथों से बारी-बारी से चरणों को धोकर दुपट्टे से पोंछते और दबाने लगते हैं।
उनके नेत्र बन्द हैं...
मुख से मन्द स्वर में नामजप...
सीताराम! सीताराम! की ध्वनि निकल रही है...
जो किसी अन्य के कर्णो तक नही जाती।
बस हृदय में विराजमान प्रभु ही उसे सुन पा रहे हैं।
इस प्रकार हनुमंतलालजी देह और जीव दोनों से ही प्रभु सेवा का सुख पा रहे हैं...
ऐसा सुख जो जन्म-जन्मांतर की कड़ी तपस्या के पश्चात भी मुनियों को भी प्राप्त नहीं होता।
"जनम जनम मुनि जतन कराहीं।
अंत राम कहीं आवत नाहीं।"
बजरंगी के दोनों बन्द नेत्रों से भक्ति और प्रेम की अधिकता आँसू बह रहे हैं, अश्रुओं ने बह कर ज्यों ही श्री राम के चरणों को भिगोया..
प्रभु चौंके...
अपने चरण उन्होंने अपनी तरफ खींच लिए, हनुमान पर मानो वज्रपात हुआ...
उन्हें लगा जैसे जीव अब देह से अलग होने को ही है।
प्रभु के चरण उनसे विलग कैसे हो सकते हैं?
राम के मुख पर सदा की भाँति जगन्मोहिनी मुस्कान है...
पर एक प्रश्न भी-
'सुनो वत्स! तुम कौन हो?'
'कौन होs तुम?'
ये क्या? प्रभु ने मुझे विस्मृत ही कर दिया लगता है।
अब सम्भले हनुमत बीरा।
ब्रह्मसत्य, जगतमिथ्या ।
'अष्टसिद्धि नवनिधि' के स्वामी हनुमान जी संसार के समस्त जीवों की बुद्धि का प्रतीक हैं, सो तुरंत समझ गए कि प्रभु पूछ क्या रहे हैं।
बोले-
देह दृष्ट्या तु दासोsहं, जीव दृष्ट्या त्वदंशकः।
वस्तुतस्तु त्वमेवाहं, इति मेsनिश्चिता मतिः।।
प्रभु! इस शरीर के रूप में मैं आपका दास हूँ
तथा जीव के रूप में मैं आपका ही अंश हूँ।
परंतु प्रभु! मेरी मति कहती है कि आत्मा के रूप में वस्तुतः मैं वही हूँ जो स्वयं आप ही हैं।
प्रभु हँसे..उन्होंने प्रसन्न होकर हनुमानजी को सदा अपने साथ रहने का वरदान दिया और अपने कंठ से लगा लिया।
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