इलेक्शन ड्यूटी
पढ़े...तनाव कम करें और आनंद लें।
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सरकारी कर्मचारी..
पीड़ा की पराकाष्ठा है ये अनायास ही आ गया उपचुनाव।
दो हफ्ते पहले तक जब ड्यूटी की लिस्ट रेलवे में पहुँची नहीं तो कुछ बुद्धिमान कर्मचारियों के रिमार्क्स कुछ ऐसे थे।
"अरे! अब नहीं आएगी, ये स्टेट वालों ने टीए कमाने के लिए अपने-अपनी लगा ली है यार। वैसे भी ये उपचुनाव है, ज्यादा कर्मचारियों की जरूरत तो है नहीं।"
"अभी आ सकती है, पिछली बार तीन-चार दिन पहले तक आई थी"
फिर एक दिन....
किसी बाबू ने जैसे बम पटक दिया...
सत्तर लोगों की लिस्ट आ गई।
सबने नोट किया, जो बचे... खुश हुए।
तीन दिन बाद एक और लिस्ट।
बड़े-बड़े तुर्रम खां इस बार लिस्ट में थे...
कुछ ने प्रशासन को गालियाँ बक कर अपना गुबार निकाला, भारी मन से प्रशिक्षण की तारीख नोट कर ली।
अब तो चार दिन ही बचे थे। जिनका नाम नहीं आया वे अपने आपको वी.आई.पी. समझ रहे थे।
फिर अचानक...
उन वी.आई.पी.की भी आ ही गई..
अरे...मौत नहीं..., इलेक्शन ड्यूटी..
शाश्वत सत्य है यह तो...
कोई नहीं बचा है, जाना तो सबको है।
मृत्यु और चुनाव ड्यूटी ने कभी किसी को छोड़ा है क्या?
लोग लग गए ड्यूटी कटवाने में...
अपने पूरे जीवन के कर्मों का लेखा जोखा लेकर कलेक्टरी के चक्कर काटे।
सारी तिकड़म, पहुँच... का प्रयोग कर...
कुछ ने तो बीमारी का सर्टिफिकेट ही बना लिया।
फिर कुछ सफल भी हो गए..
हाँ-हाँ...
कटवाने में अपनी-अपनी....
ड्यूटी।
जिनकी कट गई वो आश्चर्यजनक रूप से शांत हैं...
कि कोई और उनको अपनी कटाने के लिए न कह दे।
पर मन ही मन प्रसन्न...
बिल्कुल ऐसे ही जैसे अचानक फाँसी की सजा कैंसिल हो गई हो।
और...
जिनकी नहीं कटी...
"अरे..कुछ नहीं है, बहुत करा दी ऐसी तो.."
पिकनिक है...,मजे करेंगे...।"
पर काया जानती है सब...
झेंप मिटा रहे और मन ही मन अपने आप को आने वाली विपदा से निपटने के लिए तैयार करते हुए..
जैसे पार्थिव पटेल दक्षिण अफ्रीका में फिलेंडर को खेलने के लिए अपने आप को तैयार कर रहा हो।
हम भी तैयार हो रहे हैं...
यह शोधपत्र है ड्यूटी के पहले का...
अगला भाग...
परसों ड्यूटी के बाद....।
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सरकारी कर्मचारी..
पीड़ा की पराकाष्ठा है ये अनायास ही आ गया उपचुनाव।
दो हफ्ते पहले तक जब ड्यूटी की लिस्ट रेलवे में पहुँची नहीं तो कुछ बुद्धिमान कर्मचारियों के रिमार्क्स कुछ ऐसे थे।
"अरे! अब नहीं आएगी, ये स्टेट वालों ने टीए कमाने के लिए अपने-अपनी लगा ली है यार। वैसे भी ये उपचुनाव है, ज्यादा कर्मचारियों की जरूरत तो है नहीं।"
"अभी आ सकती है, पिछली बार तीन-चार दिन पहले तक आई थी"
फिर एक दिन....
किसी बाबू ने जैसे बम पटक दिया...
सत्तर लोगों की लिस्ट आ गई।
सबने नोट किया, जो बचे... खुश हुए।
तीन दिन बाद एक और लिस्ट।
बड़े-बड़े तुर्रम खां इस बार लिस्ट में थे...
कुछ ने प्रशासन को गालियाँ बक कर अपना गुबार निकाला, भारी मन से प्रशिक्षण की तारीख नोट कर ली।
अब तो चार दिन ही बचे थे। जिनका नाम नहीं आया वे अपने आपको वी.आई.पी. समझ रहे थे।
फिर अचानक...
उन वी.आई.पी.की भी आ ही गई..
अरे...मौत नहीं..., इलेक्शन ड्यूटी..
शाश्वत सत्य है यह तो...
कोई नहीं बचा है, जाना तो सबको है।
मृत्यु और चुनाव ड्यूटी ने कभी किसी को छोड़ा है क्या?
लोग लग गए ड्यूटी कटवाने में...
अपने पूरे जीवन के कर्मों का लेखा जोखा लेकर कलेक्टरी के चक्कर काटे।
सारी तिकड़म, पहुँच... का प्रयोग कर...
कुछ ने तो बीमारी का सर्टिफिकेट ही बना लिया।
फिर कुछ सफल भी हो गए..
हाँ-हाँ...
कटवाने में अपनी-अपनी....
ड्यूटी।
जिनकी कट गई वो आश्चर्यजनक रूप से शांत हैं...
कि कोई और उनको अपनी कटाने के लिए न कह दे।
पर मन ही मन प्रसन्न...
बिल्कुल ऐसे ही जैसे अचानक फाँसी की सजा कैंसिल हो गई हो।
और...
जिनकी नहीं कटी...
"अरे..कुछ नहीं है, बहुत करा दी ऐसी तो.."
पिकनिक है...,मजे करेंगे...।"
पर काया जानती है सब...
झेंप मिटा रहे और मन ही मन अपने आप को आने वाली विपदा से निपटने के लिए तैयार करते हुए..
जैसे पार्थिव पटेल दक्षिण अफ्रीका में फिलेंडर को खेलने के लिए अपने आप को तैयार कर रहा हो।
हम भी तैयार हो रहे हैं...
यह शोधपत्र है ड्यूटी के पहले का...
अगला भाग...
परसों ड्यूटी के बाद....।
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