छुट्टी का एक दिन

छुट्टी का एक दिन
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बड़ा ही खुशनुमा दिन था आज..
सर्दी भी कम हो चली थी,
मानो सूर्यनारायण के उत्तरायण का आवाहन कर रही हो।
मकरसंक्रांति का दिन और रविवार,
सो छुट्टी का कन्फर्म दिन।
आज भी हमारे कुछ साथी ऑफिस में कुछ अर्जेंट काम निपटाने के लिए बुला लिए गए थे पर मैं इस बार खुशकिस्मत था।
श्रीमती जी तो कई दिनों से उत्साहित थीं कि इस बार मकर संक्रांति पर पुष्कर चलना है।
पुष्कर ने मुझे सदा से लुभाया...
पता नहीं क्यों?
पर यहाँ की गलियाँ, मस्ती और माहौल बनारस से बहुत कुछ मिलता जुलता है।
शायद इसीलिए..
सुबह ही हम निकल पड़े।
रास्ते में कई मंदिरों के दर्शन करते हुए हम पुष्कर पहुँचे।
काफी भीड़ थी आज,
न जाने सन्डे और संक्रांति का असर था शायद।
तय यह हुआ कि लौटते में ब्रह्मा मंदिर, घाट और वराह मंदिर के दर्शन करेंगे।
सो...
हम सीधे सावित्री मंदिर के परिसर में पहुँच गए,
रोप-वे से आवागमन शुरू होने के बाद भी यहाँ इक्के-दुक्के ही लोग दिखाई दे रहे थे।
रोप-वे टिकट विंडो के गेट के पास की जगह बैठ गए हम।
वहीं पर बैठा बड़ी ही मीठी फ़िल्मी धुन बजा रहा था वो..
उसके पास ही उसकी छोटी सी बच्ची उस धुन पर मटक रही थी,
उसकी जीविका सम्भवतया ऐसे ही चलती थी।
हम उसके पास पहुँच गए।
उसे भी थोड़ा आश्चर्य हुआ,
शायद उसके पास यूँ कोई जाकर बात नहीं करता...
कुछ लोग उसके डब्बे में पैसे जरूर डाल देते हैं। मैने पास की ही एक दुकान से दो पैकेट बिस्कुट खरीदा और उस बच्ची को दिया।
...और उस युवक के समीप ही उकड़ूँ बैठ गया। उसका बजाना फिर भी चल रहा था।
मैने उसे रोका,
..कुछ बात करने के लिए।
'ये क्या है जो बजा रहे हो?
कुछ वायलिन जैसा ही लगता है।' मैंने पूछा।
ये 'रामनाट्ठा' है।
क्या? मुझे कुछ समझ न आया था।
रमणठा...मैंने दुहराया..।
हल्के से सिर हिला कर मना करने वाले अंदाज में उसने फिर कहा- रावणहत्था ।
अच्छा..हाँ ss।
मैंने कहीं तो सुन या पढ़ रखा था राजस्थान के इस तत् वाद्य यंत्र का नाम।
मैंने बात बढ़ाई..
नाम क्या है तुम्हारा?
रघु..
रघुss
मैंने दुहराया।
उमर कितनी है तम्हारी ?
बीस.. बड़ा संक्षिप्त उत्तर देकर वह चुप हो गया।
कदाचित ज्यादा बोलना आदत न थी उसकी।
जीवन की रगड़ से वह तीस से अधिक का दिख रहा था।
सीखा है इसे बजाना?
नहीं, बस परिवार में सभी बजाते थे..
बस सीख गया।
ये बच्ची तुम्हारी है?
हाँ, शर्माते हुए हल्की सी मुस्कान पहली बार उनके चेहरे पर आई थी।
'मुझे बजाना है', मैने कहा।
उसने उस रावण हत्थे को मेरे हाथों में थमा दिया।
मैने इसे पकड़ने और बजाने की सारी थ्योरी उससे क्षण भर में ही सीख ली।
वह भी बसी तन्मयता से सारी बारीकियाँ समझाए जा रहा था..
उसने हाथ रखकर बताया भी,
पर...मैं...
बजाने में पूर्ण असफल रहा।
यही तो अंतर है थ्योरी और प्रैक्टिकल में।
बातें करने और काम करने में...।
"बचपन मे सीखना बड़ा आसान रहता है।"
उसने मुझे समझाया...
हम छोटे छोटे रावनहत्थे बनाकर बेचते है।
कितने का पड़ता है ये? मैंने उत्सुकता दिखाई।
आठ नौ सौ का।
अभी चहिए तो मिल जाएगा।
उसे लगा शायद मुझे लेना हो..।
और ये वाला?
मैंने उसके हाथ की तरफ इशारा किया।
"ये तो चार पाँच हजार तक का बनता है, घोड़े के बालों से इस गज को बनाते हैं।"
धनुष को दिखाकर उसने बताया।
इससे निर्वाह हो जाता है? मैंने पूछा।
हो जाता है जी।
हमे चाहिए क्या, दो बखत की रोटली।
तीज-त्योहारों में लुगाई भी आ जाती है..
मैं बजाता हूँ, वह गाती है और बच्ची नाचती है।
फिर हम तो बंजारे हैं जी..
जहाँ जाते है, वहीं रुक जाते हैं,
इस बार बहुत दिन टिक गए यहाँ,
काफी दिन से हैं यहीं।
आगे वो तो है ही।
उसने ऊपर आसमान की तरफ दोनों हाथ उठा दिए।
बस ईस के भरोसे के बाद किसी भी कहानी में क्या दुःख बचता है?
दी..एन्ड ही तो...।

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