यह नया अंदाज
यह रेलवे स्टाफ लाईन के एक बड़े से बँगले का बेहद विशाल वृक्ष था।
प्रतिदिन की भाँति वह जोड़ा आज फिर वहीं था...
पेड़ की सबसे ऊपर वाली डाल पर...।
आज सुग्गी चकित थी,
सुग्गा इस शाख से उस शाख पर फुदकता फिर रहा था।
ढेर सारी पकी हुई फलियाँ शाखों पर चोंच मार-मारकर गिरा चुका था वो..।
बहुत ध्यान से अपने सुग्गे को देखते हुए जब उससे रहा नहीं गया तो बोल उठी मादा सुग्गी--
बात क्या है ?
आज तो कुछ ज्यादा ही निश्चिन्त दिखाई दे रहे हो?
मैने तुम्हे पहले कभी इतना उन्मुक्त नहीं देखा।
"जीवन को नए अंदाज में जीना शुरू कर दिया है मैंने। "
इस बार बड़े दार्शनिक अंदाज में गंभीरता से जवाब दिया था सुग्गे ने।
सुनना चाहती हो मेरी इस अवस्था का राज क्या है?
सुग्गे ने अपने चारों ओर देखते हुए बड़ी रहस्यमयी आवाज में सुग्गी के अत्यधिक पास आकर फुसफुसाते हुए पूछा।
सुग्गी अब तनिक गंभीर हो गई थी, ऐसी स्थिति में तो उसने अपने पूरे गृहस्थ जीवन में पहले कभी सुग्गे को न देखा था।
हमेशा धीर-गंभीर रहने वाला, कम बोलने वाला सुग्गा आज अचानक...।
तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना?
सुग्गी के स्वर में इस बार थोड़ी घबराहट थी।
अरे पगली! मैं उल्लास में मस्त हूँ क्योंकि स्वतंत्र अनुभव कर रहा हूँ।
कल तक रोज का वही राग था,
घोसला बनाना...
बच्चों के लिए दाने-पानी का इंतजाम।
हर पल उनकी चिंता...
कैसे उड़ना सीखेंगे वो,
जीवन के खतरों से लड़ भी सकेंगे...
या कोई उन्हें...। आह...।
आज पता चला कि वे बड़े हो गए...
अपनी दुनिया,
अपने रस्ते उन्होंने खुद ही बना लिए..
उड़ चले वो...
पूरा आसमान आज उनका है,
अपने घोंसले..नहीं-नहीं घर...
वे खुद ही बनाएँगे।
अब उन्हें हमारी क्या चिंता?
...........और हमें भी उनकी चिंता क्यों करनी। वे सक्षम हैं,
हमारे भी तो पंख काम कर रहे हैं।
हमें मनुष्यों की तरह न तो बुढ़ापे में पेंशन की जरूरत है और न ही तिजोरियाँ भरनी है।
जिन फलियों को मैं कभी चोंच भर बच्चों के लिए घोसले में ले जाया करता था,
उसे ही अब लुटा रहा हूँ,
जानती हो क्यों?
ये हमारी फिक्सड डिपाजिट हैं,
प्रकृति के बैंक में रखी,
जो न तो कभी कम होंगी और न खत्म।
हर मौसम में ये हमारे लिए काफी हैं।
अफसोस इतना ही कि,
"बस जब राहें मिलीं तब...
लौटने का समय हो चला था।"
सुग्गी की आँखों में अब संतुष्टि के भाव थे,
पूरे इत्मीनान से अपनी गर्दन सुग्गे के कंधे पर रखकर उसने पलकें झपका लीं।
संध्या का सूरज अब भी अपनी प्राकृतिक गति से अपने रास्ते पर चला जा रहा था।
प्रतिदिन की भाँति वह जोड़ा आज फिर वहीं था...
पेड़ की सबसे ऊपर वाली डाल पर...।
आज सुग्गी चकित थी,
सुग्गा इस शाख से उस शाख पर फुदकता फिर रहा था।
ढेर सारी पकी हुई फलियाँ शाखों पर चोंच मार-मारकर गिरा चुका था वो..।
बहुत ध्यान से अपने सुग्गे को देखते हुए जब उससे रहा नहीं गया तो बोल उठी मादा सुग्गी--
बात क्या है ?
आज तो कुछ ज्यादा ही निश्चिन्त दिखाई दे रहे हो?
मैने तुम्हे पहले कभी इतना उन्मुक्त नहीं देखा।
"जीवन को नए अंदाज में जीना शुरू कर दिया है मैंने। "
इस बार बड़े दार्शनिक अंदाज में गंभीरता से जवाब दिया था सुग्गे ने।
सुनना चाहती हो मेरी इस अवस्था का राज क्या है?
सुग्गे ने अपने चारों ओर देखते हुए बड़ी रहस्यमयी आवाज में सुग्गी के अत्यधिक पास आकर फुसफुसाते हुए पूछा।
सुग्गी अब तनिक गंभीर हो गई थी, ऐसी स्थिति में तो उसने अपने पूरे गृहस्थ जीवन में पहले कभी सुग्गे को न देखा था।
हमेशा धीर-गंभीर रहने वाला, कम बोलने वाला सुग्गा आज अचानक...।
तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना?
सुग्गी के स्वर में इस बार थोड़ी घबराहट थी।
अरे पगली! मैं उल्लास में मस्त हूँ क्योंकि स्वतंत्र अनुभव कर रहा हूँ।
कल तक रोज का वही राग था,
घोसला बनाना...
बच्चों के लिए दाने-पानी का इंतजाम।
हर पल उनकी चिंता...
कैसे उड़ना सीखेंगे वो,
जीवन के खतरों से लड़ भी सकेंगे...
या कोई उन्हें...। आह...।
आज पता चला कि वे बड़े हो गए...
अपनी दुनिया,
अपने रस्ते उन्होंने खुद ही बना लिए..
उड़ चले वो...
पूरा आसमान आज उनका है,
अपने घोंसले..नहीं-नहीं घर...
वे खुद ही बनाएँगे।
अब उन्हें हमारी क्या चिंता?
...........और हमें भी उनकी चिंता क्यों करनी। वे सक्षम हैं,
हमारे भी तो पंख काम कर रहे हैं।
हमें मनुष्यों की तरह न तो बुढ़ापे में पेंशन की जरूरत है और न ही तिजोरियाँ भरनी है।
जिन फलियों को मैं कभी चोंच भर बच्चों के लिए घोसले में ले जाया करता था,
उसे ही अब लुटा रहा हूँ,
जानती हो क्यों?
ये हमारी फिक्सड डिपाजिट हैं,
प्रकृति के बैंक में रखी,
जो न तो कभी कम होंगी और न खत्म।
हर मौसम में ये हमारे लिए काफी हैं।
अफसोस इतना ही कि,
"बस जब राहें मिलीं तब...
लौटने का समय हो चला था।"
सुग्गी की आँखों में अब संतुष्टि के भाव थे,
पूरे इत्मीनान से अपनी गर्दन सुग्गे के कंधे पर रखकर उसने पलकें झपका लीं।
संध्या का सूरज अब भी अपनी प्राकृतिक गति से अपने रास्ते पर चला जा रहा था।
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