सिताबी: मेरी नई कहानी, बिल्कुल सच्ची
सिताबी: मेरी नई कहानी, बिल्कुल सच्ची
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यूँ तो कहानियाँ सच्ची नहीं होती, वह सिर्फ होती है कल्पना..
पर ये बिल्कुल सच्ची कहानी है...
निन्यानबे प्रतिशत तक सच्ची...
सिताबी...
हाँ यही नाम बताया था उसने..
अवस्था यही कोई पचहत्तर साल रही होगी।
बड़े ही अलग से इस नाम ने ही मुझे वहाँ रोक दिया था,
मेरी बड़ी पुरानी पारिवारिक कहानी में भी एक किरदार का यह नाम मैंने लगभग चालीस वर्षों बाद फिर से सुना था।
खैर...
एक बड़े से पेड़ के नीचे पर बैठी थी वो..
यह बात है माउंट आबू की।
इधर साल दो हजार सत्रह खत्म होने को था और हम दो मित्र परिवार सहित क्रिसमस वीक में अपनी छुट्टियाँ खत्म कर रहे थे।
बहुत ही सर्द दिन था वो..
माउंट आबू...
राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन..
इन छुट्टियों में गुजरातियों की भारी भीड़ से खचाखच भरा था।
अपनी टवेरा से साइट सीन घूमते-घूमते हम दोपहर में दिलवाड़ा के जैन मंदिर पहुंच चुके थे। सभी मंदिर के अंदर नक्काशी देखने में व्यस्त थे और मैं...
मुझे तो अपनी नई कहानी मिल चुकी थी।
दिलवाड़ा के जैन मंदिर के बाहर टैक्सी स्टैंड के पास एक बड़ा सा पेड़.. घना...
पहाड़ी पेड़..
न जाने किसका..
उसे घेर कर एक चबूतरा सा बना दिया था उसने।
उसके नीचे मैरून धोती पहने वह वृद्धा एक बड़ी सी हांडी में कुछ तो गुनगुनाते-बुदबुदाते छाछ बिलो रही थी।
एक अजीब सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी...
मुस्कान से अधिक उसे सुकून कहना ज्यादा उचित है।
असल में प्रथम दृष्ट्या तो उसकी बिलोई छाछ के ऊपर तक भर आए फेन ने मेरा ध्यान उस ओर दिलाया था।
मैं सबको मंदिर की तरफ जाते छोड़ उसके पास पहुँचा,
मुझे देख उसने बिलोना बन्द कर दिया।
उससे बात होने लगी।
'आपकी फ़ोटो लेनी है' मैने कहा।
वह बुरी तरह शरमा गई।
अरे नहीं बेटा... फोटो नहीं-नहीं...
अम्मा आप बिलोओ.. एक बड़ी अच्छी फ़ोटो बन रही है।
वह मान गई, हल्के से सिर हिलाते, मुस्काते उसने फिर बिलोना शुरू किया।
झाग फिर हांडी के ऊपर तक आने लगे थे और मेरा कैमरा अपना काम कर रहा था।
मैंने एक गिलास छाछ ली और बात आरम्भ कर दी।
अम्मा, छाछ बहुत अच्छी है।
मैं घर मे ही दही बनाती हूँ , आवाज में दम्भ था और आत्मविश्वास भी।
कब से छाछ बना रही हो अम्मा?
अब मैंने जानबूझकर बात बढ़ाई।
अब उसकी झिझक थोड़ी कम हो चुकी थी। बताने लगी-
पैसठ बरस से बिटवा..
"इत्ती सी थी तब मेरी माँ ने छाछ बनाने इसी पेड़ के नीचे बैठा दिया था।"
अपने सामने बैठी एक पांच-सात बरस की लड़की की ओर इशारा करती हुई वह बोली।
अरे? पैसठ बरस?
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा- पेड़ का वह मोटा तना जैसे उसकी बात की गवाही दे रहा था।
हाँ sss।
फिर वह खुद ही कहने लगी-
मैने अपनी दोनों बहुओं को भी यह काम सिखा दिया है, घर मे फालतू झगड़ती रहती थीं, अब पैसा आ रहा है तो झगड़ा भी बंद है।
उसने सामने की तरफ इशारा किया।
मैने पलट कर देखा।
सामने की तरफ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो जगहों पर औरतें इसी तरह छाछ का स्टाल लगाए हुए थीं।
गुजर-बसर अच्छी हो जाती होगी? मैने पूछा।
"हाँ बेटा!
पूरे सौ रुपल्ली का दही बनाती हूँ रोज..."
सौ-डेढ़ सौ गिलास बिक जाते हैं।
साथ में ये आँवला भी।
उसने पास से उठा कर दिखाया--
लो! चखो तुम भी।
यह क्या है?
"ये आँवले का अचार है, सौंफ-अजवान सब डाला है"
खाकर पानी पियो, बड़ा मीठा लगेगा।
उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर गर्व की मुस्कुराहट नजर आई।
खुशी जीवन का पूरा फलसफा था उसके पास..
मैने चखा...
आँवला सचमुच स्वादिष्ट था।
और..उसके चेहरे की शांति थी,
अनुपम...असीम।
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यूँ तो कहानियाँ सच्ची नहीं होती, वह सिर्फ होती है कल्पना..
पर ये बिल्कुल सच्ची कहानी है...
निन्यानबे प्रतिशत तक सच्ची...
सिताबी...
हाँ यही नाम बताया था उसने..
अवस्था यही कोई पचहत्तर साल रही होगी।
बड़े ही अलग से इस नाम ने ही मुझे वहाँ रोक दिया था,
मेरी बड़ी पुरानी पारिवारिक कहानी में भी एक किरदार का यह नाम मैंने लगभग चालीस वर्षों बाद फिर से सुना था।
खैर...
एक बड़े से पेड़ के नीचे पर बैठी थी वो..
यह बात है माउंट आबू की।
इधर साल दो हजार सत्रह खत्म होने को था और हम दो मित्र परिवार सहित क्रिसमस वीक में अपनी छुट्टियाँ खत्म कर रहे थे।
बहुत ही सर्द दिन था वो..
माउंट आबू...
राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन..
इन छुट्टियों में गुजरातियों की भारी भीड़ से खचाखच भरा था।
अपनी टवेरा से साइट सीन घूमते-घूमते हम दोपहर में दिलवाड़ा के जैन मंदिर पहुंच चुके थे। सभी मंदिर के अंदर नक्काशी देखने में व्यस्त थे और मैं...
मुझे तो अपनी नई कहानी मिल चुकी थी।
दिलवाड़ा के जैन मंदिर के बाहर टैक्सी स्टैंड के पास एक बड़ा सा पेड़.. घना...
पहाड़ी पेड़..
न जाने किसका..
उसे घेर कर एक चबूतरा सा बना दिया था उसने।
उसके नीचे मैरून धोती पहने वह वृद्धा एक बड़ी सी हांडी में कुछ तो गुनगुनाते-बुदबुदाते छाछ बिलो रही थी।
एक अजीब सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी...
मुस्कान से अधिक उसे सुकून कहना ज्यादा उचित है।
असल में प्रथम दृष्ट्या तो उसकी बिलोई छाछ के ऊपर तक भर आए फेन ने मेरा ध्यान उस ओर दिलाया था।
मैं सबको मंदिर की तरफ जाते छोड़ उसके पास पहुँचा,
मुझे देख उसने बिलोना बन्द कर दिया।
उससे बात होने लगी।
'आपकी फ़ोटो लेनी है' मैने कहा।
वह बुरी तरह शरमा गई।
अरे नहीं बेटा... फोटो नहीं-नहीं...
अम्मा आप बिलोओ.. एक बड़ी अच्छी फ़ोटो बन रही है।
वह मान गई, हल्के से सिर हिलाते, मुस्काते उसने फिर बिलोना शुरू किया।
झाग फिर हांडी के ऊपर तक आने लगे थे और मेरा कैमरा अपना काम कर रहा था।
मैंने एक गिलास छाछ ली और बात आरम्भ कर दी।
अम्मा, छाछ बहुत अच्छी है।
मैं घर मे ही दही बनाती हूँ , आवाज में दम्भ था और आत्मविश्वास भी।
कब से छाछ बना रही हो अम्मा?
अब मैंने जानबूझकर बात बढ़ाई।
अब उसकी झिझक थोड़ी कम हो चुकी थी। बताने लगी-
पैसठ बरस से बिटवा..
"इत्ती सी थी तब मेरी माँ ने छाछ बनाने इसी पेड़ के नीचे बैठा दिया था।"
अपने सामने बैठी एक पांच-सात बरस की लड़की की ओर इशारा करती हुई वह बोली।
अरे? पैसठ बरस?
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा- पेड़ का वह मोटा तना जैसे उसकी बात की गवाही दे रहा था।
हाँ sss।
फिर वह खुद ही कहने लगी-
मैने अपनी दोनों बहुओं को भी यह काम सिखा दिया है, घर मे फालतू झगड़ती रहती थीं, अब पैसा आ रहा है तो झगड़ा भी बंद है।
उसने सामने की तरफ इशारा किया।
मैने पलट कर देखा।
सामने की तरफ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो जगहों पर औरतें इसी तरह छाछ का स्टाल लगाए हुए थीं।
गुजर-बसर अच्छी हो जाती होगी? मैने पूछा।
"हाँ बेटा!
पूरे सौ रुपल्ली का दही बनाती हूँ रोज..."
सौ-डेढ़ सौ गिलास बिक जाते हैं।
साथ में ये आँवला भी।
उसने पास से उठा कर दिखाया--
लो! चखो तुम भी।
यह क्या है?
"ये आँवले का अचार है, सौंफ-अजवान सब डाला है"
खाकर पानी पियो, बड़ा मीठा लगेगा।
उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर गर्व की मुस्कुराहट नजर आई।
खुशी जीवन का पूरा फलसफा था उसके पास..
मैने चखा...
आँवला सचमुच स्वादिष्ट था।
और..उसके चेहरे की शांति थी,
अनुपम...असीम।
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