रसो वै सः

पूरे जीवन मे...
एक क्षण ऐसा भी आता है...
जब,
आकांक्षा आनंद की ओर धकेलती है।
परमआनंद की ओर....
यह आनंद अच्छे भोजन, वस्त्र या धन का कदापि नही।
मायिक भोग-विलास और चतुर्पुरुषार्थ का भी नहीं।
क्षणिक नहीं....
यह तो परब्रह्म की प्राप्ति का आनंद है।
वेदनारायण ने कहा-
"आनंदो ब्रह्मेति व्यजानाति"
ब्रह्म ही आनंद है....परमानंद।
वह रस से युक्त है, बल्कि परम रस वह स्वयं ही तो है।
उपनिषद कहते हैं "रसो वै सः"पर समझ न पाया कोई...
मात्र पुरुष ने ही आनंद की इच्छा नहीं की,
वह परब्रह्म भी स्वयं आतुर है उस पुरुष को मिलाने को...
आनंद से...अपने-आप से।
आग दोनों ही तरफ है बराबर लगी हुई।
कभी छलाँग लगाने की इच्छा हो उस आग में...
तो चूकना मत...रुकना भी मत। कूद ही जाना.. .
हिम्मत का यह क्षण कभी ही आता है,
घटना घट जाय तो घट जाय।
रुके तो चूके।
बाद में मौका मिले, न मिले।

टिप्पणियाँ

devmpatel@gmail.com ने कहा…
🌼जय गुरुदेव🌼 ,प्रिय आत्म बंधु। आपने यह जो लिखा है यह क्या है ..?..क्या आप उसके पर अधिक प्रकाश डाल सकते हैं ..?
अति नम्र विनंती:-कृपया आप आपके साथ संपर्क करने का माध्यम बता सकते हैं क्या ..❓
आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
जय गुरुदेव ।
Brahmanuvach ने कहा…
नमन बंधु।🙏
कहीं कोई जिज्ञासा है तो आप इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं। आपको उत्तर अवश्य देने का प्रयास रहेगा।
हो सके तो वेदों, उपनिषदों, सनातन के इतिहास, वाल्मीकि रामायण और पुराणों का अध्ययन करने का प्रयास करें।
महादेव आपका कल्याण करें।
🙏🙏

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