खोज परमात्मा की



मैं ईश्वर को खोजता था,
बहुत-बहुत जन्मों से...
अनेक बार, दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखलाई पड़ी
मैं भागता.. भागता.. उसकी तरफ
पर तब तक वह निकल चुका होता... और दूर...
मेरी तो सीमा थी पर उस असीम की, उस सत्य की कोई सीमा न थी
जन्मों- जन्मों भटकता रहा मैं..
कभी-कभी झलक मिलती थी उसकी
किसी तारे के पास
जब मैं पहुँचता उस तारे तक...
तब तक वह कहीं और निकल चुका होता था
आखिर बहुत थका..बहुत परेशान..और बहुत प्यासा...
एक दिन मैं उसके द्वार पर पहुँच ही गया
मैं उसकी सीढियाँ चढ़ गया
परमात्मा के भवन की सीढ़ियाँ मैंने पार कर लीं
मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया..
सांकल मैंने हाथ में ले ली
बजाने को ही था..
तभी...
मुझे ख्याल आया...
अगर कहीं वह मिल ही गया तो क्या होगा?
फिर मैं क्या करूँगा?
अब तक तो एक बहाना था चलाने का..
कि..
ईश्वर को ढूँढता हूँ..
फिर तो बहाना भी नहीं रहेगा
अपने समय को काटने का एक बहाना
अपने को व्यर्थ न मानने का...
सार्थक बनाए रखने की एक कल्पना थी
द्वार पर खड़े होकर घबराया..
कि द्वार खडकाऊं कि न खडकाऊं
क्योंकि खटकाने के बाद उसका मिलना तय है
आखिर भवन है उसका
वह मिल जाएगा..
फिर..
मैं उससे मिलना भी चाहता हूँ?
या फिर एक बहाना था केवल
अपने आपको चलाये रखने का..
क्या प्यास है इतनी मिलने की... उससे..
सचमुच चाहता हूँ मैं उससे मिलना?
और तब.. मन बहुत घबराया
और सोचा... नहीं...
दरवाजा मत खटखटाओ
यदि वह मिल गया..
सामने आ गया तो फिर क्या करोगे?
फिर सब करना गया
फिर सब खोजना गया
फिर सब दौड़ भी गई
फिर तो सारा जीवन ही गया
तब मैं डर गया...
सचमुच डर गया..
मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी
कि कहीं वह सुन ही न ले
और मैंने अपने जूते पैर से निकाल लिए
कि कहीं...
सीढ़ियाँ उतरते समय आवाज न हो जाय
कहीं वह आ ही न जाय
और मैं भागा उसके द्वार से...
मैं भागता गया, भागता गया...
जब मैं बहुत दूर निकल आया... तब...
ठहरा... रुका..
संतोष की सांस ली
और तब से मैं फिर उसका मकान.. उसका पता..
ढूंढ रहा हूँ
क्योंकि ढूढने में जिन्दगी चलाने का एक बहाना है
मुझे भली-भांति पता है कि..
उसका मकान कहाँ है
पर मैं बच के निकल जाता हूँ
खोज जारी है...
जो भी मिलता है,
पूछता हूँ वह कहाँ मिलेगा?  
ऐसे जिन्दगी मजे में चल रही है
एक ही डर लगता है कि कहीं..
किसी दिन उससे मिलना न हो जाय
मकान उसका मुझे पता है
बड़ी अजीब सी बात है
पर हम सबके साथ ऐसा ही है,
हम सबको पता है कि..
उसका मकान कहाँ है
हमें मालूम है कि बस थोडा खटकाएँ
और...द्वार खुल जाएँगे
बस तैयार होने की बात है

.........टैगोर की कविता का उल्लेख कर ओशो ने जो प्रवचन दिया, उसे कविता रूप में ढालने का प्रयास।






टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
khoob soorat hai aapki kavita ek baat to kahani hai aap se ki iswar sarvavyapi sarvantaryami hai unse ham mil to nahi sakte unka roop har manushya me hai.mera website hai www.vishwamvishnuh.com usme sab kuch vishnu dev ke vishay me likha hai ved, puran, upanishad, mahabharat, Ramayan evam geeta me unka varnnan kaisa hai sab kuch vistar se hai.aasha kartee hum ki aapko pasand aaega pl. visitmy site and comment.Thank you once again for your kavita.
Unknown ने कहा…
अच्छा लिखा है ...पर व्यर्थ !!
Brahmanuvach ने कहा…
🙏sir.
Apka blog avashya padhunga.
Naman.
Brahmanuvach ने कहा…
सच ही है..अंत में सब व्यर्थ ही तो है😊🙏🙏

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