छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक सप्तदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित
छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक सप्तदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित
स यदशिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य
दीक्षाः ॥ ३. १७. १ ॥
स यदशिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य
दीक्षाः ॥ ३. १७. १ ॥
यज्ञ
रुपी पुरुष की दीक्षाएँ भी यही हैं कि वह खाने(भोजन) और पीने की इच्छा रखता है और
रमण करने अर्थात रति कर्म की इच्छा नहीं रखता है ।
अथ यदश्नाति यत्पिबति यद्रमते तदुपसदैरेति ॥ ३. १७. २ ॥
जो खाने, पीने के साथ रमण भी करता है वह उपसद अर्थात कार्यकर्त्ता या ऋत्विक के समान है ।
अथ यदश्नाति यत्पिबति यद्रमते तदुपसदैरेति ॥ ३. १७. २ ॥
जो खाने, पीने के साथ रमण भी करता है वह उपसद अर्थात कार्यकर्त्ता या ऋत्विक के समान है ।
अथ यद्धसति यज्जक्षति यन्मैथुनं चरति स्तुतशस्त्रैरेव
तदेति ॥ ३. १७. ३ ॥
और जो पुरुष हँसता है, खाता है (सात्विक भक्षण) और रमण करता है (धर्मपत्नी के साथ ऋतु काल में रत) वह सभी प्रकार के स्तोत्र और शस्त्र( सामगान में गाए जाने वाली ऋचाएँ स्तुत व नहीं गाए जाने वाली ऋचाएँ शस्त्र कहलाती हैं) को प्राप्त करता है।
(गीता के
सत्रहवें अध्याय में परब्रह्म श्रीकृष्ण ने बताया है कि आयु, ज्ञान, आरोग्य और
प्रीति बढ़ाने वाले रसदार, चिकने, स्थाई और चित्त को भाने वाले आहार सात्विक
पुरुषों को प्रिय होते है । कड़वे, खट्टे,
नमकीन, गर्म, तीखे, रूखे और जलन पैदा करने वाले जो रोग और दुःख उत्पन्न करते हैं
वह राजस् पुरुष को तथा बासी, रसहीन, दुर्गन्धयुक्त, जूठा आहार तामसी प्रकृति के
पुरुष को प्रिय होता है। )
अथ यत्तपो दानमार्जवमहिँसा सत्यवचनमिति
ता अस्य दक्षिणाः ॥ ३. १७. ४ ॥
और तप, दान, अहिंसा तथा सत्य बोलना आदि इस यज्ञ पुरुष की दक्षिणा है ।
तस्मादाहुः सोष्यत्यसोष्टेति पुनरुत्पादनमेवास्य
तन्मरणमेवावभृथः ॥ ३. १७. ५ ॥
जैसे कि कहा जाता है कि यज्ञ से देव पुरुष सोमरस या अमृत कलश के साथ उत्पन्न होगा वैसे ही कहा जाता है कि माता का द्वारा पुरुष उत्पन्न होगा । यह यज्ञ और अनुष्ठान ही पुरुष का जन्म है और उसकी मृत्यु ही यज्ञ की समाप्ति रूप है।
तद्धैतद्घोर् आङ्गिरसः कृष्णाय
देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव
सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येताक्षितमस्यच्युतमसि
प्राणसँशितमसीति तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ॥ ३. १७. ६ ॥
अंगिरा गोत्र के ऋषि घोर
आदित्प्रत्नस्य रेतसः ।
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिः पश्यन्त उत्तरँस्वः
पश्यन्त उत्तरं देवं देवत्रा सूर्यमगन्म
ज्योतिरुत्तममिति ज्योतिरुत्तममिति ॥ ३. १७. ७ ॥
॥ इति सप्तदशः खण्डः ॥
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