छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक षोडश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित  

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विँशति वर्षाणि
तत्प्रातःसवनं चतुर्विँशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं
प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसवः
एते हीदं सर्वं वासयन्ति ॥ ३. १६. १ ॥

       पुरुष ही यज्ञ है, उस पुरुष की आयु के प्रारंभिक २४ वर्ष प्रातःकाल का यज्ञ है, गायत्री के छंद २४ अक्षरों वाले हैं ( गायत्री छन्द में ३ पाद और प्रत्येक में ८ अक्षर होते हैं) और गायत्री मन्त्र से ही प्रातः का यज्ञ किया जाता है। जिस प्रकार प्रातःकाल गायत्री छंद के अग्निष्टोम यज्ञ में वसु, मध्यान्ह के त्रिष्टुप छन्द में रूद्र तथा सायंकालीन जगती छन्द यज्ञ में   आदित्य देवता होते हैं, उसी प्रकार पुरुषरूप यज्ञ में प्राणों को देवता समझना चाहिए क्योकि इन्ही से सब प्राणिमात्र बसे हुए हैं। (अथर्ववेद के अनुसार गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप और जगती ये सात छन्द होते है)

तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत् स ब्रूयात्प्राणा
वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यंदिनं सवनमनुसंतनुतेति
माऽहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञा विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत ह  एत्यगदो भवति ॥ ३. १६. २ ॥

   यदि उस पुरुष को इन चौबीस वर्षों में कोई रोग आदि दुःख प्राप्ति हो तो वह इस प्रकार उपासना करे और मन्त्र कहे कि- “हे प्राणरूप वसु देवता! यह मेरा प्रातः सवन है, इसे मध्यान्ह सवन के साथ अच्छी प्रकार से जोड़े रखे। हे मेरे स्वामी! मैं यज्ञ के बीच में ही विलुप्त न हो जाऊं”। इस प्रकार उपासना से वह उपासक दुःख, रोगादि कष्ट से पूर्णतया मुक्त और नीरोग हो जाता है |

अथ यानि चतुश्चत्वारिँशद्वर्षाणि तन्माध्यंदिनं
सवनं चतुश्चत्वारिँशदक्षरा त्रिष्टुप्त्रैष्टुभं
माध्यंदिनंसवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा
वाव रुद्रा एते हीदंसर्वँरोदयन्ति ॥ ३. १६. ३ ॥

    अब पुरुष की आयु के अगले चौवालीस वर्ष मध्यान्ह यज्ञ का समय होता है, त्रिष्टुप छन्द भी चौवालीस अक्षरों वाला होता है। (इसके ४ पाद है और प्रत्येक पाद ११ अक्षरों का है) इस यज्ञ के स्वामी रूद्र हैं, रूद्र ही प्राण है और यही प्राणिमात्र को मृत्यु के समय रुलाते हैं।   

तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत् । स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा
इदं मे माध्यंदिनं सवनं तृतीयसवनमनुसंतनुतेति
माहं प्राणानां रुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत एत्यगदो ह भवति ॥ ३. १६. ४ ॥

   यदि उस पुरुष को इन चौबीस वर्षों के बाद के चौवालीस वर्षों ( अर्थात पचीसवें से अरसठवें वर्ष तक ) में कोई रोग आदि संताप हो तो वह इस प्रकार उपासना करे और मन्त्र कहे कि- “हे प्राणरूप रूद्रदेवता !  यह मेरा मध्यान्ह सवन है, इसे सायं सवन के साथ अच्छी प्रकार से अविच्छिन्न व विस्तृत करें। हे मेरे स्वामी! मैं यज्ञ के बीच में ही विलुप्त न हो जाऊं”। इस प्रकार उपासना से वह उपासक दुःख, रोगादि कष्ट से निश्चय ही मुक्त और नीरोग हो जाता है ।




अथ यान्यष्टाचत्वारिँशद्वर्षाणि
तत्तृतीयसवनम् अष्टाचत्वारिँशदक्षरा
जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः
प्राणा वाव आदित्याः एते हीदं सर्वमाददते ॥ ३. १६. ५ ॥

   अब अरसठवें वर्ष के बाद के अड़तालीस वर्षों का सायं-सवन का समय होता है । जगती छन्द भी अड़तालीस अक्षरों वाला होता है। (इसके ४ पाद है और प्रत्येक पाद १२ अक्षरों का है) इस यज्ञ के स्वामी आदित्य हैं, आदित्य ही प्राण है और यही सभी विषयों को ग्रहण करते हैं। (इस प्रकार पुरुषयज्ञ के अनुसार उसकी आयु कुल २४+४४+४८=११६ वर्ष कही गई है।) 

तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत् । स ब्रूयात्प्राणा
अदित्या इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसंतनुतेति माहं
प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत एत्यगदो हैव भवति ॥ ३. १६. ६ ॥

   यदि उस पुरुष को इन अड़तालीस वर्षों (अर्थात उनहत्तरवें से एक सौ सोलहवें वर्ष तक) में कोई रोग आदि संताप हो तो वः इस प्रकार उपासना करे और मन्त्र कहे कि- “हे प्राणरूप आदित्य देवता! यह मेरा सायं सवन है, इसे सायं सवन पूर्ण होने तक अच्छी प्रकार से अविच्छिन्न व विस्तृत करें। हे मेरे स्वामी! मैं यज्ञ के बीच में ही समाप्त न हो जाऊं”। इस प्रकार उपासना से वह उपासक जरा, दुःख, रोगादि कष्ट से निश्चय ही मुक्त और नीरोग हो जाता है ।
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः
स किं म एतदुपतपसि योऽहमनेन न प्रेष्यामीति
स ह षोडशं वर्षशतमजीवत्प्र ह षोडशं
वर्षशतं जीवति य एवं वेद ॥ ३. १६. ७ ॥

     एतरेय ब्राह्मण में ऋषि इतर के पुत्र महर्षि महिदास ने कहा था कि हे रोग ! तू मुझे क्यों दुःख देता है, मैं तेरे इस संताप प्रदान करने से नहीं मर सकता हूँ। वेद कहता है कि जो इस यज्ञ की विद्या को जानते हुए उपासना करता है वह निश्चित ही सुखों को भोगते हुए रोगादिरहित एक सौ सोलह वर्षों तक जीवन प्राप्त करता है ।

॥ इति षोडशः खण्डः ॥

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