छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक त्रयोदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित)

                ॥ त्रयोदशः खण्डः

तस्य ह वा एतस्य हृदयस्य पञ्च देवसुषयः
स योऽस्य प्राङ्सुषिः स प्राणस्तच्चक्षुः
आदित्यस्तदेतत्तेजोऽन्नाद्यमित्युपासीत
तेजस्व्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ ३. १३. १


   
    वेद का पालन करते हुए शुद्ध ह्रदय से परब्रह्म की उपासना के अंग स्वरुप पञ्च देव-द्वारपालों की उपासना करनी चाहिए। सबसे पहले पूर्व दिशा के द्वारपाल आदित्य की प्राण, तेज तथा अन्न के भोक्ता जानते हुए उपासक को उपासना करनी चाहिए।  (वराह उपनिषद में कहा गया है कि प्राण के देवता वायु, श्रवण इन्द्रिय के दिशा, नेत्रों के आदित्य, जिह्वा के वरुण, नासिका के अश्विनीकुमार, वाक् के अग्नि, हस्त के इंद्र, पाद के उपेन्द्र, पायु के यम, मन के देव चन्द्र, बुद्धि के ब्रह्मा, अहंकार के रूद्र, चित्त के क्षेत्रज और उपस्थ के देवता प्रजापति हैं)

अथ योऽस्य दक्षिणः सुषिः स व्यानस्तच्छ्रोत्रँ
स चन्द्रमास्तदेतच्छ्रीश्च यशश्चेत्युपासीत
श्रीमान्यशस्वी भवति य एवं वेद ॥ ३. १३. २ ॥
   इसके पश्चात वेदानुसार दक्षिण दिशा के द्वारपाल चन्द्रमा की व्यान, प्रकीर्ति, यश, तथा संपत्ति प्राप्त करने की इच्छा से उपासक को उपासना करनी चाहिए। 

अथ योऽस्य प्रत्यङ्सुषिः सोऽपानः
सा वाक्सोऽग्निस्तदेतद्ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यमित्युपासीत
ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ ३. १३. ३ ॥
   तदन्तर वेद कहता है कि पश्चिम दिशा के द्वारपाल अग्निदेव की अपान, ब्रह्मवर्चस, तेज, तथा प्रचुर अन्न प्राप्त करने की इच्छा से उपासक को उपासना करनी चाहिए। 

अथ योऽस्योदङ्सुषिः स समानस्तन्मनः
स पर्जन्यस्तदेतत्कीर्तिश्च व्युष्टिश्चेत्युपासीत
कीर्तिमान्व्युष्टिमान्भवति य एवं वेद ॥ ३. १३. ४ ॥
   वेदों में जैसा कहा गया है कि इसके अनन्तर उत्तर दिशा के द्वारपाल मेघ है वही मन है, वही समान है।  उपासक को कीर्ति और विलक्षण कान्ति की देहयष्टि हेतु इनकी उपासना करनी चाहिए। 
 
अथ योऽस्योर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायुः
स आकाशस्तदेतदोजश्च महश्चेत्युपासीतौजस्वी
महस्वान्भवति य एवं वेद ॥ ३. १३. ५ ॥
जो उपासक वेद को जानते हुए ह्रदय के उर्ध्व द्वार उदान, वायु व आकाश देवता की उपासना करता है वह ओज व बल प्राप्त करता है और महान तेजस्वी हो जाता है। 

ते वा एते पञ्च ब्रह्मपुरुषाः स्वर्गस्य लोकस्य
द्वारपाः। स य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य
लोकस्य द्वारपान्वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते
स्वर्गं लोकं य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य
लोकस्य द्वारपान्वेद ॥ ३. १३. ६ ॥
        
भगवल्लोक के इन सभी ब्रह्मपुरुष देवों के गुणों को जानते हुए जो उपासक अपनी  उपासना करता है, उसके कुल में इन समस्त देवों के गुणों से युक्त संपन्न संतान उत्पन्न होती है, उपासक को प्ररब्रह्म के उस दिव्य लोक में स्थान प्राप्त होता है और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है।

अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु
सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव
तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिः ॥ ३. १३. ७ ॥
     इस विश्व लोक के ऊपर जो द्युलोक है, उसके भी ऊपर परब्रह्म की अलौकिक तथा परमदिव्य ज्योति विद्यमान है। उसी परमात्मा के प्रकाश से यह सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित है। इसी ज्योति स्वरुप के अंश से जीव के ह्रदय में जीवात्मा प्रकाशित होता है ।

तस्यैषा दृष्टिर्यत्रितदस्मिञ्छरीरे सँस्पर्शेनोष्णिमानं
विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव
नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतद्दृष्टं च
श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद
य एवं वेद ॥ ३. १३. ८ ॥

इससे ही मनुष्य शरीर के स्पर्श से उष्णता को अनुभव करता है । यही जठराग्नि रुपी परमात्मा का दर्शन है। यही ज्ञान है। दोनों कानों को अँगूठे से बंद करके मनुष्य जो गर्जन व निनाद अथवा अग्नि के जलने की ध्वनि सुनता है, वह शरीर के भीतर उत्पन्न ध्वनि साक्षात् ब्रह्म के शब्द ही हैं। इस प्रकार मनुष्य आत्म साक्षात्कार करते हुए परमात्मा की उपासना करे। यही वेद है, यही वेदों के उपदेश हैं जो ब्रह्म की निश्चितता को सिद्ध करते हैं।  
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥

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