छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक, अष्टम एवँ नवम् खण्ड के हिंदी भावार्थ सहित )

              ॥ अष्टम खण्ड

अथ यत्तृतीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३. ८. १ ॥

                  सूर्य के कृष्ण स्वरूपी तीसरे अमृत को बारह आदित्य देवता  (महाभारत के अनुसार धाता, मित्र, अयमा, शक्र,अरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा, और वामन भगवान यह बारह आदित्य देव हैं ) अपने वरुण मुख से पीकर जीवन धारण करते है। निश्चित ही वे सभी आदित्य देव न तो भोजन को खाते हैं और न जल पीते हैं पर इस परम अमृत के साक्षात्कार से ही तृप्त हो जाते है और समस्त ऐश्वर्य और समृद्धि प्राप्त करते हैं।

त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३. ८. २ ॥

                  वे बारह आदित्य इस कृष्ण अमृत के अनुभव मात्र से ही उदासीनता और उत्साह का अनुभव कर सकते हैं ।

स य एतदेवममृतं वेदादित्यानामेवैको भूत्वा वरुणेनैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३. ८. ३

                     इसी प्रकार परब्रह्म नारायण का जो उपासक एकाग्रचित्त होकर अपने वरुण मुख से सूर्य के इस कृष्ण रूपी अमृत को जान लेता है वह स्वयं भी आदित्य स्वरूप हो जाता है पूर्ण रूप से तृप्तता को प्राप्त करके सम्पन्नता, यश, ऐश्वर्य और उत्साह का अनुभव करता रहता है ।  

स यावदादित्यो दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता
द्विस्तावत्पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेतादित्यानामेव
तावदाधिपत्यँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३. ८. ४

                     इस प्रकार वह उपासक भी रुद्रों से भी दुगने समय तक आदित्यों के स्वराज्य और अधिपत्य को पाकर परम आनन्द प्राप्त करता रहेगा ।   
                    ॥ इति अष्टम खण्ड


           ॥ नवम खण्ड

अथ यच्चतुर्थममृतं तन्मरुत उपजीवन्ति सोमेन
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३. ९. १ ॥


                  सूर्य के उत्कृष्ट कृष्ण (अतिशय कृष्ण) स्वरूपी चौथे अमृत को चन्द्रमुख से उनचास मरुत देवता  (वायुपुराण  के अनुसार सत्त्वज्योति, आदित्य, सत्यज्योति, तिर्यक् ज्योति, सज्योति, ज्योतिष्मान्, हरित, ऋतजित, सत्यजित, सुषेणा, सेन जित, सत्यमित, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधाराय, ध्वन्ति, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईदृक, अन्यादृक, यादृक, प्रतिकृत, ऋ क्, समिति, संरम्भ, ईदृक्ष, पुरुष, अन्यादृक्ष, चेतस, समिता, सर्मिदृक्ष, प्रतिदृक्ष, मारुती, सरत, देव, दिश, यजुः, अनुद्रुक, साम, मानुष, और विश्       यह उनचास मरुत देवता हैं ) अपने वरुण मुख से पीकर जीवन धारण करते है। निश्चित ही वे सभी आदित्य देव न तो भोजन को खाते हैं और न जल पीते हैं पर इस परम अमृत के साक्षात्कार से ही तृप्त हो जाते है और समस्त ऐश्वर्य और समृद्धि प्राप्त करते हैं।

त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३. ९. २ ॥



ये सभी मरुत देव इस अति कृष्ण रूप के अमृत को अनुभव करने के उद्देश्य से निरंतर उत्साहित होते है ।
स य एतदेवममृतं वेद मरुतामेवैको भूत्वा सोमेनैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३. ९. ३

जो उपासक इस अमृत को जान लेता है और प्राप्त कर लेता है वह पूर्ण तृप्त हो जाता है । 

स यावदादित्यः पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेता
द्विस्तावदुत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता मरुतामेव
तावदाधिपत्य्ँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३. ९. ४



वह उपासक जब तक आदित्य उदय और अस्त होते रहेंगें उससे भी दुगुने काल तक के लिए मरुतों के आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त करेगा । 





॥ इति नवमः खण्डः

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