छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक प्रथम खण्ड (हिंदी भावार्थ सहित)

छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक (हिंदी भावार्थ सहित)

              प्रथम खण्ड


ॐ असौ वा आदित्यो देवमधु तस्य द्यौरेव
तिरश्चीनवँशोऽन्तरिक्षमपूपो मरीचयः पुत्राः ॥ ३. १. १ ॥
भगवान के आदित्य नाम की भक्ति करनी चाहिए जो देवों के मधु के समान है। इसका द्यौ लोक और आदित्य लोक ही तिर्यक-वंश है जहाँ इस मधु का छत्ता लगता है । अंतरिक्ष रूपी मधुकोश में ही उसकी किरणे मधु के संचय का कार्य करती हैं।

तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः ।
ऋच एव मधुकृत ऋग्वेद एव पुष्पं ता अमृता
आपस्ता वा एता ऋचः ॥ ३. १. २
उस आदित्य की प्राची दिशा की किरणे पूर्व दिशा की मधु नाड़ियाँ हैं। ऋचाएँ मधु उत्पन्न करने वाली मधु मक्खियाँ और ऋग्वेद सुगंधित पल्लव युक्त पुष्प हैं। इसके स्तोत्र ही अमृत रस हैं।

एतमृग्वेदमभ्यतपँस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज
इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यँरसोऽजायत ॥ ३. १. ३ ॥
इस ऋग्वेद रुपी पुष्प को तप कर उसके स्तोत्रों का गान करके ही हमें यश, तेज, ऐश्वर्य, इन्द्रियों रुपी शक्ति और अन्न प्राप्त हुआ।

तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य रोहितँरूपम् ॥ ३. १. ४
यह बहता हुआ रस आदित्य को चारों ओर से आच्छादित करके रक्त स्वरुप प्रदान करता है अर्थात भगवान से निकल कर यह रस सूर्य में समाविष्ट हो गया है। 

                    इति प्रथम खण्ड


टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
तीर्यक वंश का मतलब क्या है


Ajay singh ने कहा…
तिरछे बांस की तरह

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