माता लक्ष्मी का निवास स्थान
महाभारत के अनुशासन पर्व में एक सुंदर वृत्तान्त आता है। महायुद्ध समाप्त हो चुका है। राज्याभिषेक के पश्चात युधिष्ठिर श्रीकृष्ण और अपने भाइयों के साथ शरशैय्या पर पड़े भीष्म के निकट जाकर उनसे धर्म और राजनीति सम्बन्धी उपदेश प्राप्त करते हैं।
इसी क्रम में युधिष्ठिर पूछते हैं-
कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु वा भरतर्षभ।
श्रीः पद्मा वसते नित्यं तन्मे ब्रूहि पितामह।।
पितामह! मुझे बताइये...किन पुरुषों और स्त्रियों में लक्ष्मी का वास होता है?
भीष्म मुस्कुराते हैं और कहते हैं- यही प्रश्न श्रीकृष्ण के साथ बैठी हुई रुक्मिणी देवी ने एक बार कौतूहलवश गरुड़ध्वज नारायण के साथ विराजमान माता लक्ष्मी से पूछा था, तब लक्ष्मीजी ने स्वयं ही कहा था कि-
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे।
दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे।
जितेन्द्रियो नित्य मुदीर्ण सत्त्वे।
वसामि स्त्रीषु कान्ताषु देवद्विजपरासु।
विशुद्धगृहभाण्डासु गोधान्याभिरतासु च।।
मैं सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोध से परे, देवाराधन करने वाले, कृतज्ञ, जितेंद्रिय तथा सत्वगुण सम्पन्न पुरुष में तथा कमनीय गुणों वाली, देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा करने वाली, घर को सुव्यवस्थित व स्वच्छ रखने वाली, गौ सेवा में रत तथा धन्य का संग्रह करने वाली स्त्रियों में निवास करती हूँ।
(माता लक्ष्मी ने यह भी कहा कि वह किन स्त्रियों और पुरुषों में निवास नहीं करतीं। पढ़िए अगले अध्याय में...)
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