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मेरी खोज...मेरा डर

मेरी खोज...मेरा डर ************* बच्चा था जब माँ ने कहा प्रणाम करो भगवान को पिता ने सिखाया ईश्वर का स्मरण करो गुरु ने समझाया भगवान बड़ा कारसाज है जीवन वही देता है वही लेता प्राण भी जल थल नभ सब उसकी माया कर्ता वही, धर्ता वही मिल गया था अभीष्ट सर्वस्व था अब इष्ट कुछ और नहीं अब तो मुझे ईश्वर चाहिए था मैं खोजने लगा ईश्वर को खोजने लगा शिवालयों मंदिरों में तीर्थो पहाड़ों में साधुओं नागाओं में और मठों में भी तो.. बहुत भटका फिरता रहा मारा मारा जप किया फिर तप किया सुखा ली देह सारी व्यर्थ हुआ, बीत गया वृद्ध हुआ रीत गया फिर ... कई बार जन्म लिया ढूँढता रहा.. खोजता रहा दूर हर पथ पर.. देखा उसे कई बार मैं भागता.. भागता.. उसकी तरफ पर मेरा ईश्वर तब तक निकल चुका होता... और दूर... मेरी तो सीमा थी .. पर.. उस असीम की, उस सत्य की क्या सीमा जन्मों- जन्म भटकता रहा मैं.. कभी मिलता स्वप्न में भ्रम में कभी किसी तारे के पास जब मैं पहुँचता उस तारे तक... तब तक वह कहीं और ही निकल चुका होता आखिर बहुत थका..बहुत परेशान.. और बहुत प्यासा.. एक दिन .. खोजते ढूँढ़ते मैं