महादेव की होली

महादेव की होली
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फागुन आयो जब कासी में
होरी खेलै तब मात चलीं।
वै औघड़दानी ध्यान रहै,
औ माता के करतब सूझी
तब महादेव के भसम रची।
सब अंग भर दई चंदन ते,
कर्पूरी तन भस्माङ्ग राग
त्रिपुरारी के कछु भान नहीं।
जे भसम उरी,पड़ी अखियन में
तब सरपराज फुफकार भरी।
बिष की फुरकी छुई चंदा पै
दुइ बूँद सुधा तब टपक परी।
ज्यों अमिय ने चूमि मृगछाला
बस सुन्दर जीवित हरिन बनी।
वै हरिन छलावा बन बन में
धावत सरपट लै जनम नई।
तब भए दिगम्बर अड़भंगी
औ लाज लगी सब भक्तन के
तब जय जय जय जयकार भई।
सब देव पुष्प बरसात करी
सिवसंभू तब खोले लोचन
सब लोकन पर उपकार करी।
अईसे रस बरसे फगुआ के
जब सिव-संकर खेलें होरी।
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यह कथानक है तब का जब महादेव ने श्रीहरि के समझाने पर तपस्यारत हिमालय पुत्री से विवाह किया और गौना करके माता पार्वती को स्वनगरी काशी ले आए थे।
बैरागी अघोरी प्रभु ध्यान में, समाधि में मग्न हैं।
जगतजननी माता पार्वती और महादेव के गण अपने प्रभु से होली खेलने को उत्सुक हैं पर शिवशम्भू का ध्यान है कि टूटता ही नहीं।
माता को ठिठोली सूझती है..
नंदी आदि गणों को साथ लेकर वे समाधिस्थ शंकर भगवान को भस्म-चंदन से नहला देती हैं। त्रिलोचन प्रभु भस्माङ्गराग होते है पर समाधि अब भी नही हटती।
तभी एक विशेष घटनाक्रम इस पूरी स्थिति को होलीमय कर देता है।
माता के राख-भस्म विभूषित करने पर महेश्वर के गले का हार बने भुजंगराज की आंखों में उड़कर भस्म चली जाती है। नागराज क्रोधित होकर फुफकारते हैं तो विष की फुहार नीलकंठ के मस्तक पर विराजित चंद्रदेव पर पड़ जाती है।
चंद्रदेव विष का प्रभाव समाप्त करने हेतु पीयूष की बूँदे टपकाते हैं ।
उनमें से दो बूँदें त्रिपुरारी के मृगचर्म पहनी छाल पर गिर जाती हैं।
अब क्या था- अमृत से मृग की वह चर्म छाल जीवित हो सुंदर मृग में बदल जाती है और मृग वन में भाग जाता है और महादेव पूर्ण दिगम्बर हो जाते हैं।
माता सहित सब लज्जित होते हैं और
'हर-हर महादेव' की जय जयकार करते हैं, सभी देवता इस लीला को देख आकाश से पुष्पवर्षा करते हैं।
अब महादेव की समाधि कोलाहल करतल ध्वनि श्रवण कर टूट जाती है।
वे अपने चक्षु खोलते हैं। चहुँ ओर प्रकाश फैल जाता है।
तीनो लोकों को प्रभु दर्शन देते हैं ...
ऐसे होती है प्रभु शिवशम्भो की होली।
...और इस काव्य का तभी जन्म होता है।

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