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छान्दोग्योपनिषद तृतीय प्रपाठक पञ्चदश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित ॥ पञ्चदशः खण्डः ॥ अन्तरिक्षोदरः कोशो भूमिबुध्नो न जीर्यति। दिशोह्यस्य स्रक्तयः द्यौरस्योत्तरं बिलम् स एष कोशो वसुधानःतस्तस्मिन्विश्वमिदं श्रितम् ॥ ३. १५. १ ॥ मध्य में स्थित अंतरिक्ष जिसका उदर, पृथ्वी जिसका मूल है वह कोश चिर काल स्थाई है व कभी भी नष्ट नहीं होता। दिशाएँ इसके कोण हैं, द्युलोक इसके ऊपर का छिद्र है । इस कोष में कर्मफल के धन से भरा हुआ समस्त जगत स्थित है । तस्य प्राची दिग्जुहूर्नाम सहमाना नाम दक्षिण राज्ञी नाम प्रतीची सुभूता नामोदीची । तासां वायुर्वत्सः स य एतमेवं वायुं दिशां वत्सं वेद   न पुत्ररोदं रोदिति सोऽहमेतमेवं वायुं दिशां वत्सं वेद मा पुत्ररोदं रुदम् ॥ ३. १५. २ ॥ उस कोष की पूर्व(प्राची) दिशा जुहू(इसका अर्थ है यज्ञ करना), दक्षिण सहमाना(पापों को सहना), पश्चिम(प्रतीची) दिशा राज्ञी(वरुण से अधिष्ठित सुन्दर) और उत्तर(उदीची) दिशा सुभूता(कुबेरादी अच्छे प्राणियों वाली) नाम की है । वायु उन दिशाओं का बछड़ा है । जो उपासक वायु को दिशाओं के पुत्र या बछड़े (वेद) के रूप में जान जाता है, वह पुत्रन
श्री गोपीगीत  गत दिनों वैष्णवाचार्य आचार्य पुण्डरीक जी गोस्वामी द्वारा मथुरा में गोपाष्टमी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक चलने वाली श्रीमद्भागवत  कथा का श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने  श्रीमद्भागवत  के दशम स्कन्द में वर्णित रास-क्रीडा में गोपियों के विरह गीत गोपीगीत का जो वर्णन किया वह पूर्व में कभी सुनने का अवसर नहीं मिला था। उनके द्वारा प्रतिदिन राग से गाये जाने वाले गोपी गीत के सुन्दर छंद  सदा कानों में सुनाई  देते रहते हैं। यह सुन्दर और दुर्लभ गोपीगीत इस प्रकार है। ईश्वर की कृपा हुई तो अगले चरण में सरल भाषा में इसे भावार्थ सहित प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा ।    श्री गोपीगीत जयति तेऽधिकं जन्मना   व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि। दयित दृश्यतां दिक्षु तावका   स्त्वयि   धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥१॥ शरदुदाशये साधुजातसत् सरसिजोदरश्रीमुषा   दृशा। सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥२॥ विषजलाप्ययाद्व्याल राक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्। वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया   दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥३॥ न खलु गोपिकानन्दनो   भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्। विख