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छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक, षष्ठ खण्ड एवं सप्तम खण्ड का हिन्दी भावार्थ सहित)

                       ॥ षष्ठ खण्ड ॥ तद्यत्प्रथमममृतं तद्वसव उपजीवन्त्यग्निना मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३. ६. १ ॥                  वेद रूपी इस प्रथम अमृत( लोहित, शुक्ल, कृष्ण, अतिकृष्ण और कंपन ये पाँच अमृत कहे गए है। ) का समस्त अष्टवसु ( धर, ध्रुव, सोम, अहः, अनिल, अनल,प्रत्यूष और प्रभाष ये आठ वसु हैं ) अपने अग्नि मुख से पान करके जीवन धारण करते हैं । निश्चित ही देवता न तो भोजन को खाते हैं और न जल पीते हैं पर इस परम अमृत के साक्षात्कार से ही तृप्त हो जाते है । त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३. ६. २ ॥               वे इस अमृत के अनुभव मात्र से ही आवश्यकतानुसार उदासीनता और उत्साह का अनुभव कर सकते हैं । स य एतदेवममृतं वेद वसूनामेवैको भूत्वाग्निनैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स य एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३. ६. ३ ॥               इसी प्रकार जो उपासक एकाग्रचित्त होकर अपने मुख से इस अमृत का पान कर लेता है वह स्वयं भी वसुरूप हो जाता है पूर्ण रूप से तृप्तता को प्राप्त करके उत्साह का अनुभव करता रहता